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________________ ५६२ रु आदेश: पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (६) दीर्घादटि समानपादे । ६ । प०वि०-दीर्घात् ५ ।१ अटि ७ । १ समानपादे ७।१। सo - समानश्चासौ पादश्चेति समानपाद:, तस्मिन् समानपादे ( कर्मधारयतत्पुरुषः) । अनु० - पदस्य, संहितायाम्, रुः, न इति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् ऋक्षु दीर्घात् पदस्य नोऽटि रुः, समानपादे । अर्थ:-संहितायाम् ऋचि च विषये दीर्घात्परस्य पदान्तस्य नकारस्याटि परतो रुरादेशो भवति, तौ चेत्, निमित्तनिमित्तिनौ समानपादे भवतः । उदा० - परिधीरति (ऋ० ९ । १०७ । १९ ) । देवाँ अच्छा दीद्यत् (ऋ० ३ । १ । १) महाँ इन्द्रो य ओजसा (ऋ०८।६।१) । अत्र ऋक्षु इति प्रकृतत्वात् पादशब्देन ऋक्पाद एव गृह्यते । आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि और (ऋक्षु) ऋक् विषय में (दीर्घात्) दीर्घ वर्ण से परवर्ती (पदस्य ) पदान्त (नः) नकार को (अटि) अट् वर्ण परे होने पर (रु.) रु- आदेश होता है (समानपादे ) यदि वे सूत्रोक्त कारण और कार्य एक पाद में ही विद्यमान हों । उदा० - परिधरति (ऋ० ९ । १०७ । १९ ) । परिधियों का अतिक्रमण करके । देवाँ अच्छा दीद्यत् (ऋ० ३।१।१) । देवों को अच्छे प्रकार प्रकाशित करता हुआ अग्नि । महाँ इन्द्रो य ओजसा (ऋ० ८ 1 ६ 1१) । जो ओज से महान् है वह इन्द्र है। यहां ऋक् का प्रकरण होने से पाद शब्द से ऋक् पाद का ही ग्रहण किया जाता है। सिद्धि-परिधरति । यहां परिधीन् + अति । इस स्थिति में इस सूत्र से दीर्घ ईकार से परवर्ती नकार को 'रु' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । देवाँ अच्छा दीद्यत और महाँ इन्द्रो य ओजसा में 'आतोऽटि नित्यम्' (८1३1३) से नित्य अनुनासिक आदेश होता है; अनुस्वार नहीं। / रु- आदेश:-- Jain Education International (१०) नृन् पे |१०| प०वि०-नृन् २।३ पे ७ । १ । अनु० - पदस्य, संहितायाम्, रुः, न इति चानुवर्तते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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