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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः (४) प्रत्यभिवादे-आयुष्मानेधि अग्निभूता३इ, पटा३।।
(५) याज्यान्ते-उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे । स्तोमैविधेमाग्नया३इ (ऋ० ८।४३।११)।
सोऽयं प्लुतेऽकारो यथाविषयमुदात्तोऽनुदात्त: स्वरितश्च वेदितव्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अप्रगृह्यस्य) प्रगृह्य संज्ञा से भिन्न और (अदुराछूते) दूराद्धृते विषय को छोड़कर प्लुतविषयक (एच:) एच् वर्ण के (पूर्वस्य) पूर्ववर्ती (अर्धस्य) अर्धांश को (आत्) आकारादेश होता है और वह (प्लुत:) प्लुत होता है और (उत्तरस्य) उत्तरवर्ती अर्धाश को (इदुतौ) इकार और उकार आदेश होते हैं। उदाहरण
(१) प्रश्नान्त-अगम३: पूर्वाइन् ग्रामाइन् अग्निभूता३६/पटाउ । हे अग्निभूते/ पटो क्या तू पूर्व दिशा के ग्रामों को गया था ? यहां 'अनुदात्तं प्रश्नान्ताभिपूजितयोः' (८।२।१००) प्लुत अनुदात्त होता है।
(२) अभिपूजित-भद्रं करोषि माणवक३ अग्निभूता३इ/पटा३उ । हे अग्निभूते/ पटो बालक तू सुखदायक कर्म करता है। यहां भी पूर्ववत् प्लुत अनुदात्त होता है।
(३) विचार्यमाण-होतव्यं दीक्षितस्य गृहा३इ (तै०सं०६।१।४।५)। दीक्षित के घर में हवन करना चाहिये अथवा नहीं यह विचारणीय है। यहां विचार्यमाणानाम् (८।२।९७) प्लुत उदात्त होता है।
(४) प्रत्यभिवाद-आयुष्मानेधि अग्निभूता३इ, पटा३इ । हे अग्निभूते/पटो ! तू दीर्घायु हो। यहां प्रत्ययभिवादेऽशूद्रे (८।२।८३) से प्लुत उदात्त होता है।
(५) याज्यान्त-उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे । स्तोमैर्विधेमाग्नया३इ (ऋ० ८।४३ ।११)। यहां याज्यान्त:' (८।२।९०) से प्लुत उदात्त होता है। यवावादेशौ
(२७) तयोर्वावचि संहितायाम्।१०८ । प०वि०-तयो: ६।२ यवौ १२ अचि ७।१ संहितायाम् ७।१। स०-यश्च वश्च तौ य्वौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अन्वय:-संहितायां तयोरिदुतोरचि यवौ।
अर्थ:-संहितायां विषये तयोरिदुतो: स्थानेऽचि परतो यथासंख्यं यकारवकारावादेशौ भवतः ।
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