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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् प्लुतः (अनुदात्तः)
(१६) अनुदात्तं प्रश्नान्ताभिपूजितयोः।१००। प०वि०-अनुदात्तम् १।१ प्रश्नान्त-अभिपूजितयोः ७।२।
स०-अत्र प्रश्नार्थे वाक्ये प्रश्नशब्दो वर्तते। प्रश्नस्य अन्त इति प्रश्नान्त:, प्रश्नान्तश्च अभिपूजितश्च तौ प्रश्नान्ताभिपूजितौ, तयो:प्रश्नान्ताभिपूजितयो: (षष्ठीगर्भितइतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-वाक्यस्य, टे:, प्लुत इति चानुवर्तते। अन्वय:-प्रश्नान्ताभिपूजितयोर्वाक्यस्य टे: प्लुतोऽनुदात्त:।
अर्थ:-प्रश्नान्तेऽभिपूजिते चार्थे वर्तमानस्य वाक्यस्य टे: प्लुतो भवति, स चानुदात्तो भवति।
उदा०-(प्रश्नान्ते) अगर्म३: पूर्वाश्न् ग्रामाइन्, अग्निभूता३इ/पटाउ।
अग्निभूते, पटो इत्येतयो: पदयो: प्रश्नान्ते वर्तमानयोरनुदात्त: प्लुतो भवति, 'अगमः' इत्येवमादीनां पदानां तु 'अनन्त्यस्य प्रश्नाख्यानयो:' (८।२।१०५) इत्यनेन स्वरित: प्लुतो विधीयते।
अभिपूजिते-शोभन: खल्वसि माणवक३ ।
आर्यभाषा: अर्थ-(प्रश्नान्ताभिपूजितयोः) प्रश्नार्थक वाक्य के अन्तिम पद के तथा अभिपूजित अर्थ में (वाक्यस्य) वाक्य के (:) टि-भाग को (प्लुत:) प्लुत होता है और वह (अनुदात्त:) अनुदात्त होता है।
उदा०-(प्रश्नान्त) अगम३: पूर्वाश्न ग्रामाइन्, अग्निभूता३६/पटा३उ। हे अग्निभूते/पटो ! क्या तू पूर्वीदेशा के ग्रामों में गया था ?
___ यहां अग्निभूते और पटो इन प्रश्नान्त में विद्यमान पदों को इस सूत्र से अनुदात्त प्लुत होता है और अगमः' इत्यादि पदों को 'अनन्त्यस्यापि प्रश्नाख्यानयोः' (८।२।१०५) से स्वरित प्लुत होता है।
अभिपूजित-शोभन: खल्वसि माणवक३ । हे बालक तू वस्तुत: अच्छा है।
विशेष: 'अनन्त्यस्यापि प्रश्नाख्यानयोः' (८।२।१०५) से वाक्य के अन्त्य और अनन्त्य सभी पदों के टि-भाग को स्वरित प्लुत कहा गया है किन्तु इस वचनप्रमाण से प्रश्नवाक्य के अन्तिम पद को प्लुत अनुदात्त और पक्ष में प्लुत स्वरित भी होता है-अगम३: पूर्वाइन् ग्रामोश्न्, अग्निभूता३६/पटाउ ।
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