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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) पूर्तः । यहां पृ पालनपूरणयोः' (जु०प०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। 'युक: किति (७।२।११) से इडागम का प्रतिषेध है। 'उदोष्ठ्यपूर्वस्य' (७।१ ।१०२) से ऋकार के स्थान में उकारादेश, उरण रपरः' (१।१।५१) से इसे रपरत्व और हलि च' (८।२७७) से दीर्घ होता है। 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८।२।४२) से नकारादेश प्राप्त था, अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। क्तवतु' प्रत्यय में-पूर्तवान्। (४) मूर्तः । यहां मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। राल्लोप:' (६।४।२१) से च्छकार का लोप और 'आदितश्च (७।२।१६) से इडागम का प्रतिषेध है। 'रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८।२।४२) से नकारादेश प्राप्त था, अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। क्तवतु' प्रत्यय में-मूर्तवान्। (५) मत्तः । यहां 'मदी हर्षे (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। श्वीदितो निष्ठायाम् (७।२।१४) से इडागम का प्रतिषेध है। ‘रदाभ्यां निष्ठातो न: पूर्वस्य च दः' (८।२।४२) से नकारादेश प्राप्त था, अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। क्तवतु' प्रत्यय में-मत्तवान् । निपातनम् (१७) वित्तो भोगप्रत्यययोः ।५८ । प०वि०-वित्त: १।१ भोग-प्रत्यययो: ७।२। स०-भोगश्च प्रत्ययश्च तौ भोगप्रत्ययौ, तयो:-भोगप्रत्यययो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-निष्ठात:, न:, धातोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-भोगप्रत्यययोर्वित्त इति निपातनम् । अर्थ:-भोगे प्रत्यये चाभिधेये वित्त इति पदं निपात्यते। उदा०-(भोग:) वित्तमस्य बहु। अस्य धनं बहित्यर्थः । धनं हि भुज्यतेऽतस्तद् भोग इत्यभिधीयते । (प्रत्यय:) वित्तोऽयं मनुष्यः । प्रतीत:-प्रसिद्ध इत्यर्थः। आर्यभाषा: अर्थ-(भोगप्रत्यययोः) भोग और प्रत्यय अर्थ अभिधेय में (वित्त:) वित्त यह पद निपातित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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