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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पावः न-आदेश:
(५) क्षियो दीर्घात्।४६। वि०-क्षिय: ५।१ दीर्घात् ५।१।। अनु०-निष्ठात:, न:, धातोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-दीर्घात् क्षियो धातोर्निष्ठातो नः।
अर्थ:-दीर्घात् क्षियो धातो: परस्य निष्ठातकारस्य स्थाने नकारादेशो भवति।
उदा०-(क्षी) क्षीणा: क्लेशा: । क्षीणो जाल्मः । क्षीणस्तपस्वी। . आर्यभाषा: अर्थ-(दीर्घात्) दीर्घान्त (क्षिय:) क्षी (धातो:) धातु से परवर्ती (निष्ठात:) निष्ठा के तकार के स्थान में (न:) नकारादेश होता है।
उदा०-(क्षी) क्षीणा: क्लेशा: । अविद्या आदि क्लेश क्षय होगये। क्षीणो जाल्मः । यह नीच निर्बल होगया है (अक्रोश)। क्षीणस्तपस्वी। यह बेचारा तपस्वी निर्बल होगया
सिद्धि-क्षीणः । यहां क्षि क्षये' (भ्वा०प०) धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। निष्ठायामण्यदर्थे (६।४।६०) से तथा वाचक्रोशदैन्ययोः' (६।४।६१) से 'क्षि' धातु को आक्रोश (भर्त्सना) और दीनता अर्थ में दीर्घ होता है। इस सूत्र से इस दीर्घ 'क्षी' धातु से परवर्ती निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है। 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है। न-आदेश:
(६) श्योऽस्पर्शे।४७। प०वि०-श्य: ५।१ अस्पर्शे ७१। स०-न स्पर्श इति अस्पर्श:, तस्मिन्-अस्पर्शे (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-निष्ठात:, न, धातोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-अस्पर्शे श्यो धातोर्निष्ठातो न।
अर्थ:-स्पर्शवजितऽर्थे वर्तमानात् श्यायतेर्धातो: परस्य निष्ठातकारस्य स्थाने नकारादेशो भवति।
उदा०-(श्या) शीनं घृतम् । शीनं मेद: । शीना वसा ।
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