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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(२) जान: । ज्या+क्त । ज्या+त। जि आ+त। जी+न। जान+सु । जानः ।
यहां 'ज्या वयोहानौ' (क्रया०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है । 'प्रहिज्या०' (६ ।१ ।१६ ) से सम्प्रसारण, 'सम्प्रसारणाच्च' (६ । १ । १०६ ) से आकार को पूर्वरूप एकादेश और 'हल:' (६/४/२) से दीर्घ होता है । सूत्र- कार्य पूर्ववत् है । 'क्तवतु' प्रत्यय में- जीनवान् ।
न आदेश:
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(४) ओदितश्च । ४५ ।
वि०-ओदित: ५ ।१ च अव्ययपदम् ।
स०-ओद् इद् यस्य स ओदित्, तस्मात् - ओदित: (बहुव्रीहि: ) । अनु० - निष्ठातः, न:, धातोरिति चानुवर्तते ।
अन्वयः - ओदितो धातोश्च निष्ठातो नः ।
अर्थ :- ओकारेतो धातोश्च परस्य निष्ठातकारस्य स्थाने नकारादेशो भवति ।
उदा०- (ओलजी) लग्न: लग्नवान् । (ओविजी) उद्विग्न:, उद्विग्नवान् । (ओप्यायी) आपीन:, आपीनवान् ।
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आर्यभाषाः अर्थ-(ओदितः) ओकार जिसका इत् है उस (धातोः ) धातु (च) भी परवर्ती (निष्ठातः) निष्ठा के तकार के स्थान में (नः) नकारादेश होता है । उदा०- - (ओलस्जी) लग्न: लग्नवान् । उसने व्रीडा (लज्जा) की। (ओविजी) उद्विग्नः, उद्विग्नवान् । वह व्याकुल हुआ। (ओप्यायी) आपीन:, आपीनवान् । वह बढ़ा (स्थूल हुआ) ।
सिद्धि - लग्न: । लस्ज्+क्त । लस्ज्+त । ल०ज्+त। लग्+त। लग्+न। लग्न+सु । लग्नः ।
यहां 'ओलस्जी व्रीडायाम्' (तु०आ०) धातु से 'निष्ठा' (३ । २ । १०२ ) से 'क्त' प्रत्यय है। 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' (१1३1२) से धातुस्थ ओकार और ईकार की इत् संज्ञा होकर 'तस्य लोप: ' (१1३1९ ) से लोप होता है । 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च (८/२/९) से संयोगादि सकार का लोप और 'चोः कुः' (८ 1२ 1३०) से जकार को कवर्ग गकारादेश होता है। इस सूत्र से ओदित् 'ओलस्जी' धातु से परवर्ती निष्ठा तकार को नकारादेश होता है । 'क्तवतु' प्रत्यय में लग्नवान् । उत्-उपसर्गपूर्वक 'ओविजी भयचलनयोः ' (तु०आ०) धातु से - उद्विग्नः, उद्विग्नवान् । 'ओप्यायी वृद्धौं (भ्वा०आ०) धातु से - आपीन:, आपीनवान् ।
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