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ध-आदेशः
अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
( १७ ) नहो धः । ३४ ।
प०वि० - नहः ६ । १ ध: १ । १
अनु०-पदस्य, झलि, अन्ते, ह:, धातोरिति चानुवर्तते ।
अन्वयः - नहो धातोर्हः पदस्यान्ते झलि च धः ।
अर्थ:-नहो धातोर्हकारस्य स्थाने पदस्यान्ते झलादौ प्रत्यये परतश्च धकारादेशो भवति ।
उदा०- (पदान्ते) उपानत्, परीणत् । ( झलि ) नद्धम्, नगुम्, नद्धव्यम् ।
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आर्यभाषाः अर्थ- (नह: ) नह इस (धातो: ) धातु के (ह: ) हकार के स्थान में ( पदस्य) पद के अन्त में और ( झलि ) झलादि प्रत्यय परे होने पर (धः ) धकारादेश होता है।
उदा०- (पदान्त) उपानत् । जूता । परीणत् । परिबन्धक । (झल् ) नद्धम् । बंधा हुआ। नदुम् । बांधने के लिये । नद्धव्यम् | बांधना चाहिये ।
सिद्धि-(१) उपानत्। यहां उप-उपसर्गपूर्वक 'जह बन्धने' (दि०उ० ) धातु से वा०- 'सम्पदादिभ्यः क्विप्' (३ । ३ । ९४ ) से 'क्विप्' प्रत्यय है। वैरपृक्तस्य' ( ६ |१ / ६६ ) सेक्विप् का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पद के अन्त में विद्यमान नह' के हकार को धकारादेश होता है। 'झलां जशोऽन्ते' (८/२ / ३८ ) से धकार को जश् दकार और 'वाऽवसानें' (८।४।५५) से दकार को चर् तकार होता है। 'नहिवृतिवृषि०' (६ । ३ ।११६) दीर्घ होता है।
(२) परीणत् । यहां परि- उपसर्गपूर्वक 'नह' धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते (३/२/७५ ) से क्विप्' प्रत्यय है । 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' (८/४ 1१४) से त्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
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(३) नद्धम् । यहां 'नह' धातु से 'निष्ठा' (३ ।२ । १०२ ) से 'क्त' प्रत्यय है । इस सूत्र से झलादि 'क्त' प्रत्यय परे होने पर 'नह' के हकार को धकारादेश होता है। 'झषस्तथोर्धोऽधः' (८/२/४०) से तकार को धकार और 'झलां जश् झशि' (८/४ 1५३) से पूर्ववर्ती धकार को जश् दकार होता है ।
(४) नदुम् | यहां 'नह्' धातु से पूर्ववत् तुमुन्' प्रत्यय है ।
(५) नद्धव्यम् । यहां 'नह' धातु से पूर्ववत् 'तव्यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
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