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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् में-राजता। तलन्तः' (लिङ्गानुशासन १।१७) से तल्-प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' (५।३।५७) से 'तरप्' प्रत्यय में-राजतरः।
अतिशायने तमबिष्ठनौ' (५।३।५५) से इष्ठन् प्रत्यय में-राजतमः । नलोपप्रतिषेधः
(५) न ङिसम्बुद्ध्योः ।८। प०वि०-न अव्ययपदम्, ङि-सम्बुद्ध्योः ७।२ ।
स०-ङिश्च सम्बुद्धिश्च ते डिसम्बुद्धी, तयो:-डिसम्बुद्ध्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-नस्य, लोप:, प्रातिपदिकस्य, अन्तस्य, पदस्येति चानुवर्तते। अन्वय:-प्रातिपदिकस्य पदस्याऽन्तस्य नस्य डिसम्बुद्ध्योर्लोपो न।
अर्थ:-प्रातिपदिकस्य पदस्य योऽन्त्यो नकारस्तस्य डौ सम्बुद्धौ च परतो लोपो न भवति।।
उदा०-(डि) आर्द्र चर्मन् (तै०सं० ७।५।९।३) । लोहिते चर्मन् (काठ०सं० २४।२)। 'सुपां सुलुक्०' (७।१।३९) इति डेर्लुक् । (सम्बुद्धिः ) हे राजन् ! हे तक्षन् !
आर्यभाषा: अर्थ-(प्रातिपदिकस्य) प्रातिपदिक (पदस्य) पद के (अन्तस्य) अन्त्य (नस्य) नकार का (डिसम्बुद्ध्यो:) डि और सम्बुद्धि-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (लोप:) लोप (न) नहीं होता है।
__उदा०-(डि.) आर्दै चर्मन् (तै०सं०७।५।९।३)। गीले चर्म पर। यहां सुपां सुलुक०' (७।१।३९) से 'डि' प्रत्यय का लुक है। लोहिते चर्मन् (काठ०सं० २४१२)। लाल चर्म पर। पूर्ववत् ङि' प्रत्यय का लुक् है। (सम्बुद्धि) हे राजन् ! हे भूपते ! हे तक्षन् ! हे बढ़ई।
सिद्धि-(१) चर्मन् । चर्मन्+डि। चर्मन्+० । चर्मन्।।
यहां चर्मन्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'डि' प्रत्यय है। 'सुपां सुलुक०' (७।१।३९) से 'डि' प्रत्यय का लुक होता है। इस सूत्र से डि' प्रत्यय में चर्मन्' प्रातिपदिक पद के नकार लोप का प्रतिषेध होता है।
(२) हे राजन् ! राजन्+सु। राजन्+स् । राजन्+0/ राजन् ।
ये 'राजन्' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से 'सु' प्रत्यय है। 'हल्डयाब्भ्यो दीर्घात' (६।१।६७) से 'सु' का लोप होता है। 'एकवचनं सम्बुद्धिः ' (२।३।४९) से सु' की सम्बुद्धि संज्ञा है। इस सूत्र से सम्बुद्धि में राजन्' प्रातिपदिक पद के नकार लोप का प्रतिषेध होता है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से नकार लोप प्राप्त था।
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