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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४८३ और 'अभि' उपसर्ग फिषोऽन्तोदात्त:' (फिट० ११) से अन्तोदात्त है किन्तु इस सूत्र से उत्' गति परे होने पर 'अभि' गति अनुदात्त होता है। ऐसे ही-सम्+उत्+आ+नयति समुदानयति। अभि+सम्+परि+आ+हरति अभिसम्पर्याहरति। अनुदात्तम्
(५४) तिङि चोदात्तवति।७१। प०वि०-तिङि ७१ च अव्ययपदम्, उदात्तवति ७।१ ।
तद्धितवृत्ति:-उदात्तोऽस्मिन्नस्तीति उदात्तवान्, तस्मिन्-उदात्तवति । 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्' (५।२७४) इत्यनेन मतुप् प्रत्ययः ।
अनु०-पदस्य, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ गतिरिति चानुवर्तते। अन्वय:-अपादादावुदात्तवति तिङि च गति: पदं सर्वमनुदात्तम्।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमानम् उदात्तवति तिङन्ते पदे परतश्च गति: पदं सर्वमनुदात्तं भवति।
उदा०-यत् प्रपचति । यत् करोति ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (उदात्तवति) उदात्त गुणवाला (तिङि) तिङन्त पद परे होने पर (च) भी (गति:) गति-संज्ञक-उपसर्ग (पदम्) पद (सर्वानुदात्तम्) सर्वानुदात्त होता है।
उदा०-यत् प्रपचति । जब वह प्रकृष्ट पकाता है। यत प्रकरोति । जब वह प्रकृष्ट करता है (बनाता) है।
सिद्धि-यत प्रपचति । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, उदात्त-गुणवान्, तिङन्त पचति' पद परे होने पर 'प्र' गति-उपसर्ग को इस सूत्र से अनुदात्त होता है। ऐसे ही-यत् प्रकरोति ।
यहां निपातैर्यद्यदि०' (८।१।३०) से पचति' और 'करोति' पद उदात्तवान् हैं। अत: इनके परे रहने पर 'प्र' इस गति को अनुदात्त होता है। उपसर्गाश्चाभिवर्जम् (पिट्० ४।१३) से आधुदात्त नहीं है।
।। इति सर्वानुदात्तस्वरप्रकरणम् ।।
अविद्यमानवद्भावप्रकरणम् अविद्यमानवत्
(१) आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् ।७२। प०वि०--आमन्त्रितम् ११ पूर्वम् १।१ अविद्यमानवत् अव्ययपदम् ।
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