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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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यत्का॑स्ते॒
उदा० - यो भुङ्क्ते । यं भोजयति । येन भुङ्क्ते । यस्मै ददा॑ति । जुहुम: (ऋ०१० | १५१ । १० ) । य॒द्रिय॑ङ् वा॒युर्वात' ( तै०सं० ५1५1१1१) । यद्वायुः पर्वते ।
आर्यभाषाः अर्थ - (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, (यद्वृत्तात्) यत् शब्द से निष्पन्न (पदात्) पद से परवर्ती ( तिङ् ) तिङन्त (पदम् ) पद को (नित्यम् ) सदा (सर्वानुदात्तम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है।
"जिस पद में 'यत्' शब्द है वह सब यद्वृत्त कहाता है। यहां किंवृत्त शब्द के समान उसके विभक्त्यन्त और 'यत्' के इतर - उतम प्रत्ययान्त शब्दों का ग्रहण नहीं किया जाता है" (काशिका) ।
उदा०-यो भुङ्क्ते। जो खाता है। यं भोजयति । जिसे खिलाता है। येन भुङ्क्ते । जिस साधन से खाता है । यस्मै ददति । जिसके लिये दान करता है। यत्कोमास्ते जुहुम: (०१० | १५१ ।१० ) । जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग तेरी स्तुति करते हैं । यद्रिये वायुर्वात ( तै०सं० ५1५1१1१ ) । जिस ओर का वायु चलता है। यद्वायुः पर्वते । जिसे वायु पवित्र करता है.
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सिद्धि - (१) यो भुङ्क्ते । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, यद्वृत्त 'य: ' पद से परवर्ती तिङन्त 'भुङ्क्ते' पद को इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही यं भोजयति आदि ।
(२) यत्कांमास्ते जुहुम: । यहां यत् और काम शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे ( २/२/२४) से बहुव्रीहि समास है ।
(३) य॒द्रिय॑ङ् वयुर्वाते। यहां यत्-उपपद 'अञ्चु गतिपूजनयो:' (भ्वा०प०) धातु से 'ऋत्विग्दधृक्०' (३।२।५९) से क्विन्' प्रत्यय है । विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये (६ / ३ / ९२ ) से 'यत्' के टि-भाग (अत्) को अद्रि- आदेश होता है । सूत्रकार्य पूर्ववत् है ।
अनुदात्तम्
(५०) पूजनात् पूजितमनुदात्तं [ काष्ठादिभ्यः ] | ६७ । प०वि० - पूजनात् ५ ।१ पूजितम् १ । १ अनुदात्तम् १।१ {काष्ठादिभ्यः ५ । ३} ।
स०-काष्ठ आदिर्येषां ते काष्ठादय:, तेभ्य:- काष्ठादिभ्यः ( बहुव्रीहि: ) । अनु०-पदस्य, पदात्, सर्वम्, अपादादाविति चानुवर्तते । अन्वयः-अपादादौ पूजनेभ्यः काष्ठादिभ्यः पदेभ्यः पूजितं सर्वमनुदात्तम् ।
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