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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-स श्व: कर्ता । वह कल करेगा। तौ श्व: कर्तारौं । वे दोनों कल करेंगे। ते मासेन कर्तारः । वे सब एक मास में करेंगे।
सिद्धि-श्व: कर्ता। यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविहामान श्वः' पद से पदवर्ती लुट्-प्रत्ययान्त, तिङन्त कर्ता' पद को इस सूत्र से सर्वानुदात्त स्वर का प्रतिषेध होता है।
__'कर्ता' यहां डुकृञ् करणे' धातु से 'अनद्यतने लुट्' (३।३।१५) रो लुट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में तिप्' आदेश और 'लुट: प्रथमस्य डारौरसः' (२।४।८५) से तिप्' के स्थान में 'डा' आदेश होता है। 'स्यतासी ललुटो:' (३।१।३३) से तासि विकरण-प्रत्यय है। वा०-'डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से 'तास्' के टि-भाग (आ) का लोप होता है। इस सूत्र से सर्वानुदात्त निघात स्वर का प्रतिषेध होने पर तास्यनुदात्तेन्डिन्त०' (६।१।१८०) से तासि को सर्बोदात्त स्वर होता है-श्व: कर्तारौ, कर्तारः। और जहां टि-भाग का लोप होता है वहां 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोप:' (६।१।१६१) से ल-सार्वधातुक प्रत्यय ही उदात्त होता है-श्वः कर्ता। सर्वानुदात्तप्रतिषेधः(१३) निपातैर्यद्यदिहन्तकुविन्नेच्चेच्चण्
कच्चिद्यत्रयुक्तम्।३०। प०वि०- निपातै: ३।३ यत्-यदि-हन्त-कुवित्-नेत्-चेत्-चण्कच्चित्-यत्रयुक्तम् १।१।
स०-यच्च यदिश्च हन्तश्च कुविच्च नेच्च चेच्च चण् च कच्चिच्च यत्रश्च ते-ययत्रा:, तैर्युक्तमिति-यद्यत्रोक्तम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भिततृतीयातत्पुरुष:)।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, नेति चानुवर्तते।
अन्दय:-अपादादौ पदाद् निपातैर्यद्यदिहन्तकुविन्नेच्चेच्चण्कच्चिद्यत्रयुक्तं तिङ् पदं सर्वम् अनुदात्तं न।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमान पदात् परं निपातैर्यद्यदिहन्तकुविन्नेच्चेच्चण्कच्चिद्यत्रयुक्तं तिङन्तं पदं सर्वमनुदात्तं न भवति । उदाहरणम्
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