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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
धातुः
उदाहरणम्
भाषार्थ:
(३) द्रवति दिद्रावयिषति वह दौड़ कराना चाहता है ।
दुद्रावयिषति
-सम
वह उछालना चाहता है 1
(४) प्रवति पिप्रावयिषति पुप्रावयिषति
-सम
-सम
(५) प्लवति पिप्लावयिषति पुप्लावयिषति
-सम
(६) च्यवति चिच्यावयिषति वह हटाना चाहता है । चुच्यावयिषति
-सम
आर्यभाषा: अर्थ - (स्रवति०) स्रवति, शृणोति, द्रवति, प्रवति, प्लवति, च्यवति इन (अङ्गानाम्) अङ्गों के (ओ:) उकारान्त (अभ्यासस्य) अभ्यास को (अपरे) अवर्ण-परक (यणि) यण्-वर्ण परे रहते (सनि) सन् प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से ( इत्) इकारादेश होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-सिस्रावयिषति। यहां 'स्रु गतौं' (भ्वा०प०) धातु से प्रथम हेतुमति च' ( ३ । १ । २६ ) से हेतुमान् अर्थ में 'णिच्' प्रत्यय है । सु + णिच् =सावि । पश्चात् णिजन्त 'स्रावि' धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा' ( ३ 1१1७) से इच्छा- अर्थ में 'सन्' प्रत्यय है। 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से द्विर्वचन करते समय 'द्विर्वचनेऽचि (१1१14८) से अजादेश (स्राव) को स्थानिवद्भाव होकर स्रु' को द्विर्वचन होता है - सु- स्राविष । सु- स्राविष । इस स्थिति में अभ्यास - उकार से व्यवधानरहित तो अवर्णपरक यण्-वर्ण (रा) नहीं है किन्तु मध्य में सकार का व्यवधान है पुनरपि इस सूत्रवचन से उकारान्त अभ्यास (सु) को इकारादेश होता है- सिस्रावयिषति । विकल्प-पक्ष में इकारादेश नहीं है - सुस्रावयिषति । ऐसे ही 'श्रु श्रवणे' ( भ्वा०प०) धातु से - शिश्रावयिषति, शिश्रावयिषति । 'द्रुतौ (भ्वा०प०) धातु से - दिद्रावयिषति, दिद्रावयिषति । 'प्रुङ् गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से - पिप्रावयिषति, पिप्रावयिषति । 'प्लुङ् गतौं' (भ्वा०आ०) धातु से- पिप्लावयिषति, पुप्लावयिषति । 'च्युङ् गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से - चिच्यावयिषति, च्युच्यावयिषति ।
गुणादेश:
(२५) गुणो यङ्लुकोः । ८२ । प०वि० - गुणे: १ । १ यङ् - लुको ७ । २ ।
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