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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् अनु०-अङ्गस्य, अच:, सि, सनीति चानुवर्तते । अन्वयः - आप्ज्ञप्यृधामङ्गानामऽच: सि सनि ईत् । अर्थः-आप्ज्ञप्यृधामऽङ्गानामऽच: स्थाने सकारादौ सनि प्रत्यये परत ईकारादेशो भवति । ३७० 1 उदा० - (आप् ) स ईप्सति । (ज्ञपि ) स ज्ञीप्सति । (ऋध्) स ईर्त्सति । आर्यभाषाः अर्थ-(आप्ज्ञप्यृधाम्) आप्, ज्ञपि, ऋध् इन (अङ्गानाम्) अङ्गों के (अच: ) अच् के स्थान में (सि) सकारादि (सनि) सन् प्रत्यय परे होने पर ( ईत् ) ईकारादेश होता है। उदा०- ( आप् ) स ईप्सति । वह प्राप्त करना चाहता है । (ज्ञपि ) स ज्ञीप्सति । वह मारना चाहता है । (ऋध् ) स ईर्त्सति । वह बढ़ना चाहता है। सिद्धि - (१) ईप्सति । आप्+सन् । आप्+स। आ+प्स-प्स। आ+0+प्स । ई+प्स | ईप्स + लट् । ईप्सति । यहां 'आलू व्याप्तौं' (स्वा०प०) धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां 'वा' (३ 1१1८) से इच्छा अर्थ में 'सन्' प्रत्यय है। 'अजादेर्द्वितीयस्य' (६ | १ | २ ) के नियम से द्वितीय एकांच् अवयव (प्स - प्स) को द्वित्व होता है। 'अत्र लोपोऽभ्यासस्य' (७ 1४ 1५८) से अभ्यास (प्स) का लोप होता है। इस सूत्र से 'आप' के अच् (आ) को ईकारादेश होता है ! (२) ज्ञीप्सति । ज्ञा+णिच् । ज्ञा+पुक्+इ । ज्ञ+प्+इ। ज़प्+इ+सन् । ज्ञप्+०+सन् । ज्ञप्स्- ज्ञप्स । ०+ज्ञप्स। ज्ञीप्स+लट् । ज्ञीप्सति । यहां प्रथम 'ज्ञा अवबोधने (क्रया० उ० ) धातु से हेतुमति च' (३ 1१।२६ ) से हेतुमान् अर्थ में 'णिच्' प्रत्यय है । 'अर्तिहीव्ली०' (७ । ३ । ३६ ) से 'पुक्' आगम होता है। 'मारणतोषणनिशामनेषु ज्ञा' (भ्वादि-गणसूत्र ) से इसकी मित् संज्ञा होकर मितां हस्व:' (६।४।९२) से ह्रस्व होता है (ज्ञपि ) । तत्पश्चात् 'ज्ञपि' धातु से पूर्ववत् 'सन्' प्रत्यय, 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से णिच् का लोप होता है । 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से 'ज्ञप्स्' को द्वित्व और 'अत्र लोपोऽभ्यासस्य' (७।४१५८) से अभ्यास (ज्ञप्स्) का लोप होता है। इस सूत्र से 'ज्ञप्स्' के अच् को इकारादेश होता है। (३) इसति। यहां 'ऋ वृद्धौं' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् 'सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र ' से 'ऋध्' के अच् (ऋ) को ईकारादेश, 'उरण् रपर : ' (१1१1५) से रपरत्व और 'खरि च' ( ८1४ 144 ) से धकार को चर् तकार होता है। शेष कार्य 'ईप्सति' के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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