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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ-(ऋत:) ऋकारान्त (अङ्गस्य) अङ्ग को (अकृत्सार्वधातुकयोः) कृत् और सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय से भिन्न (यि) यकारादि और (च्वौ) च्वि प्रत्यय परे होने पर (रीङ्) रीङ् आदेश होता है।
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उदा०- मात्रीयति । वह अपनी माता की इच्छा करता है। मात्रीयते । वह माता के समान आचरण करती है । पित्रीयति । वह अपने पिता की इच्छा करता है। पित्रीयते । वह पिता के समान आचरण करता है। चेक्रीयते । वह पुन: - पुनः / अधिक बनाता है । मात्रीभूत: । जो माता नहीं है वह माता बना हुआ पुरुष ।
सिद्धि - (१) मात्रीयति । यहां ऋकारान्त 'मातृ' शब्द से 'सुप आत्मन: क्यच् (३|१1८) से आत्म-इच्छा अर्थ में 'क्यच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'मातृ' शब्द को यकारादि 'क्यच्' प्रत्यय परे होने पर 'रीङ्' आदेश होता है। मात्रीङ्+य+ति । मात्रीयति । ऐसे ही 'पितृ' शब्द से - पित्रीयति ।
(२) मात्रीयते। यहां ऋकारान्त 'मातृ' शब्द से 'कर्तुः क्यङ् सलोपश्च' (३ 1१1११) से आचार - अर्थ में 'क्यङ्' प्रत्यय है । प्रत्यय के ङित् होने से 'अनुदात्तङित आत्मनेपदम् ' (१।३।१२) से आत्मनेपद होता है । सूत्रकार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही 'पितृ' शब्द से-पित्रीयते ।
(३) चेक्रीयते। यहां 'डुकृञ् करणें (तना० उ० ) धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३ । १ । २२ ) से 'यङ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से ऋकारान्त 'कृ' धातु को यकारादि 'यङ्' प्रत्यय परे होने पर 'रीङ' आदेश होता है । पश्चात् 'सन्यङो: ' (६ 1१1९ ) से 'क्री' धातु को द्वित्व होता है। 'गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण (ए) होता है।
(४) मात्रीभूत: । यहां ऋकारान्त 'मातृ' शब्द से 'अभूततद्भावे कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्वि:' (५।४/५०) से 'च्वि' प्रत्यय है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है । रिङ्-आदेशः
(८) रिङ् शयग्लिङ्क्षु । २८ । प०वि०-रिङ् १।१ श-यक्- लिङ्क्षु ७।३।
स०-शश्च यक् च लिङ् च ते शयग्लिङ:, तेषु - शयग्लिषु 'ङमो हस्वादचि ङमुण् नित्यम्' (८ । ३ । ३२ ) इति ङमुट् (ङ) आगम: । 'खचि च' (८।४।५४) इति ङकारस्य चर्वं ककारः ।
अनु०-अङ्गस्य, ऋत:, यि, असार्वधातुके इति चानुवर्तते । अन्वयः-ऋतोऽङ्गस्य शे यकि यि असार्वधातुके लिटि च रिङ् ।
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