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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(इदुद्भ्याम्) इकारान्त और उकारान्त (अङ्गाभ्याम्) अगों से परे (डे:) डि प्रत्यय के स्थान में (औत्) औकारादेश होता है।
उदा०-(इद्) सख्यौ। सखा में। पत्यौ । पति में। (उद्) ।
जो इकारान्त शब्द नदी-संज्ञक नहीं है और घि-संज्ञक भी नहीं है उसे यहां उदाहरण समझें। जैसे-सखि, पति।
सिद्धि-सख्यौ । सखि+डि । सखि+इ। सखि+औ। सख्य+औ। सख्यौ।।
यहां नदी और घि-संज्ञा से भिन्न 'सखि' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से 'डि' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस सखि' शब्द से परे 'डि' प्रत्यय को औकारादेश होता है। इको यणचिं' (६।१।७५) से यणादेश है। ऐसे ही 'पति' शब्द से-पत्यौ। औत् आदेश:
(४) अच्च घेः।११६ । प०वि०-अत् ११ च अव्ययपदम्, घे: ५।१। अनु०-अङ्गस्य, डे:, औदिति चानुवर्तते। अन्वय:-घेरगाद् डेरौत्, घेरच्च।
अर्थ:-घि-संज्ञकाद् अङ्गाद् उत्तरस्य डिप्रत्ययस्य स्थाने औकारादेशो भवति, तस्य च घिसंज्ञकस्याऽकारादेशश्च भवति।
उदा०-अग्नौ । वायौ। कृतौ। धेनौ। पटौ।
आर्यभाषा: अर्थ-(घे:) घि-संज्ञक (अङ्गात्) अङ्ग से परे (डे) डि प्रत्यय के स्थान में (औत्) औकारादेश होता है और उस (घे:) घि-संज्ञक अङ्ग को (अत्) अकारादेश (च) भी होता है।
उदा०-अग्नौ । अग्नि देवता में। वायौ। वायु देवता में। कृतौ । रचना में। धेनौ । दुधारु गौ में। पटौ । चतुर वटु (बालक) में।
सिद्धि-आनौ । अग्नि+डि। अग्नि+इ। अग्नि+औ। आन् अ+औ। अग्नौ।
यहां घि-संज्ञक 'अग्नि' शब्द से 'स्वौजस०' (४।१।२) से ङि' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस 'अग्नि' शब्द से परे ङि' प्रत्यय को औकारादेश होता है और 'अग्नि' शब्द के अन्त्य इकार को अकारादेश भी होता है। ऐसे ही वायु' शब्द से-वायौ। कृति' शब्द से-कृतौ। 'धेनु' शब्द से-धेनौ। 'पटु' शब्द से-पटौ।
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