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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
२८६ सिद्धि-(१) जानाति । यहां ज्ञा अवबोधने (क्रयाउ०) धातु से वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय है। ऋयादिभ्य: श्ना' (३।११८१) से 'ना' विकरण-प्रत्यय होता है। इस सूत्र से इसे शित् श्ना' प्रत्यय परे होने पर जा' आदेश होता है।
(२) जायते । यहां जनी प्रादुर्भाव (दि०आo) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय है। 'दिवादिभ्य: श्यन्' (३।१।६९) से 'श्यन्' विकरण-प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। हस्वादेशः
(४०) प्वादीनां हस्वः।८०। प०वि०-पू-आदीनाम् ६।३ ह्रस्व: ११ । स०-पू-आदिर्येषां ते प्वादयः, तेषाम्-प्वादीनाम् (बहुव्रीहि:)। अनु०-अङ्गस्य, शितीति चानुवर्तते। अन्वय:-प्वादीनामऽङ्गानां शिति ह्रस्व: । अर्थ:-प्वादीनामऽङ्गानां शिति प्रत्यये परतो ह्रस्वो भवति । उदा०-(पूञ्) स पुनाति । (लू) स लुनाति। (स्तृञ्) स स्तृणाति ।
एते प्वादयो धातव: पाणिनीयधातुपाठस्य क्रयादिगणे पठ्यन्ते। 'पूञ् पवने' इत्यत: प्रभृति व्ली गतौ (वृत्) इति यावत् प्वादयः । अपरे आ गणान्ता: प्वादय इति मन्यन्ते।
आर्यभाषा: अर्थ-(प्वादीनाम्) पूज् पवने इत्यादि (अङ्गानाम्) अगों को (शिति) शित् प्रत्यय परे होने पर (ह्रस्व:) ह्रस्व होता है।
उदा०-(पूर्व) स पुनाति । वह पवित्र करता है। (लूज़) स लुनाति । वह काटता है। (स्तृञ्) स स्तृणाति । वह आच्छादित करता है, ढकता है।
सिद्धि-पुनाति। यहां पूञ् पवने (क्रया उ०) धातु से वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय है। क्रयादिभ्यः श्ना' (३।११८१) से श्ना' विकरण-प्रत्यय होता है। इस सूत्र से इसे शित् श्ना' प्रत्यय परे होने पर हस्व (उ) होता है। ऐसे ही लूज लवने (क्रया०उ०) धातु से-लुनाति। 'स्तृञ् आच्छादने (क्रया० उ०) धातु से-स्तृणाति।
ये पू-आदि धातु पाणिनीय धातुपाठ के क्रयादिगण में पठित हैं। पूर्व पवने से लेकर ली गतौ' (वृत्) इस वृत्कार पर्यन्त पू-आदि धातु हैं। कई आचार्य गण की समाप्ति पर्यन्त पू-आदि धातु मानते हैं।
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