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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
ર૭૬ सिद्धि-वाच्यम् । यहां वच परिभाषणे (अदा०प०) धातु से ऋहलोर्ण्यत्' (३।१।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे अशब्दसंज्ञा विषय में कवदिश का प्रतिषेध होता है। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३।५२) से कुत्व प्राप्त था। नपूर्वक से-अवाच्यम्। निपातनम्
(२८) प्रयोज्यनियोज्यौ शक्यार्थे ।६८। प०वि०-प्रयोज्य-नियोज्यौ १।२ शक्यार्थे ७।१।
स०-प्रयोज्यश्च नियोज्यश्च तौ-प्रयोज्यनियोज्यौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। शक्यश्चासावर्थ इति शक्यार्थः, तस्मिन्-शक्यार्थे (कर्मधारयः)।
अनु०-अङ्गस्य, चजो:, कुः, न, ण्ये इति चानुवर्तते। अन्वय:-शक्यार्थे प्रयोज्यनियोज्यौ एतयोश्चजोर्ये कुन ।
अर्थ:-शक्यार्थे प्रयोज्यनियोज्यौ शब्दौ निपात्येते अर्थात् एतयोरङ्गयोर्जकारस्य स्थाने, ण्ये प्रत्यये परत: कवगदिशो न भवति ।
उदा०-(प्रयोज्य:) प्रयोक्तुं शक्य इति प्रयोज्यो भृत्य: । (नियोज्य:) नियोक्तुं शक्य इति नियोज्यो दास: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(शक्यार्थे) शक्य-अर्थ में (प्रयोज्यनियोज्यौ) प्रयोज्य और नियोज्य ये शब्द निपातित है, अर्थात् इन अङगों के जकार के स्थान में (कु:) कवगदिश (न) नहीं होता है।
उदा०-(प्रयोज्य) प्रयोग कर सकने योग्य-प्रयोज्य भृत्य (नौकर)। (नियोज्य) नियोग-आज्ञा कर सकने योग्य-नियोज्य दास ।
सिद्धि-प्रयोज्य: । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक युजिर् योगे' (रुधाउ०) धातु से शकि लिङ् च' (३।३।१७२) से शक्यार्थ में कृत्य-संज्ञक ण्यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसके जकार को कवदिश का प्रतिषेध निपातित है। 'चजो: कु धिण्ण्यतो:' (७।३।५२) से कुत्व प्राप्त था। ऐसे ही अनु-उपसर्गपूर्वक 'युज्' धातु से-अनुयोज्यः । निपातनम्
(२६) भोज्यं भक्ष्ये।६६। प०वि०-भोज्यम् १।१ भक्ष्ये ७१। अनु०-अङ्गस्य, चजो: कु:, न, ण्ये इति चानुवर्तते।
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