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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) वृक्षैः । वृक्ष+भिस् । वृक्ष+ऐस् । वृक्षस् । वृक्षैः ।
यहां 'वृक्ष' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से भिस्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अकारान्त वृक्ष' शब्द से उत्तर भिस्' के स्थान में एस्' आदेश होता है। वृद्धिरेचिं (६।१८७) से वृद्धिरूप (अ+ऐ=ऐ) एकादेश होता है। ऐसे ही प्लक्ष' शब्द सेप्लक्षैः।
(२) अतिजरसैः। अति जरा। अति-जर। अतिजर+भिस्। अतिजर+ऐस् । अतिजरस्+ऐस् । अतिजरसैस् । अतिजरसैः ।
यहां प्रथम 'अति' और 'जरा' शब्दों का वा०-'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (१।२।४८) से 'जरा' शब्द को ह्रस्वादेश (जर) होता है। इस अकारान्त अतिजर' शब्द से उत्तर इस सूत्र से भिस्' को एस्' आदेश होता है। एकदेशविकृतमनन्यवद् भवति इस परिभाषा के बल से जराया जरसन्यतरस्याम्' (७।२।१०९) से जरा' को विहित 'जरस्' आदेश जर' के स्थान में भी किया जाता है। बहुलम् ऐसादेशः
(१०) बहुलं छन्दसि।१०। प०वि०-बहुलम् १।१ छन्दसि ७१। अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य, अत:, भिस:, ऐस् इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि अतोऽङ्गाद् भिस: प्रत्ययस्य बहुलम् ऐस्।
अर्थ:-छन्दसि विषयेऽदन्ताद् अङ्गाद् उत्तरस्य भिस: प्रत्ययस्य स्थाने बहुलम् ऐसादेशो भवति।
उदा०-अत इत्युक्तम्, अनतोऽपि भवति-नद्यैः । अतश्च न भवतिदेवेभिः सर्वेभि: प्रोक्तम् । भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम (यजु० २५ ।२१)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (अत:) अकारान्त (अङ्गात्) अङ्ग से परे (भिस:) भिस् (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (बहुलम्) प्रायश: (एस्) ऐस् आदेश होता है।
उदा०-'अतो भिस ऐस (५।१।९) से अकारान्त अङ्ग से उत्तर भिस्' को 'एस्' आदेश कहा है। छन्द में बहुल वचन से अनकारान्त से भी उत्तर भिस्' को ऐस्' आदेश होता है, जैसे-नद्यैः । नदियों के द्वारा। बहुलवचन से अकारान्त से उत्तर भी नहीं होता है, जैसे-देवेभिः सर्वेभिः प्रोक्तम् । सब देवताओं ने कहा। भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम (यजु० २५ २१)। हम कानों से कल्याणकारी उपदेश सुनें।
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