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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अत्-आदेशः
(५) आत्मनेपदेष्वनतः।५। प०वि०-आत्मनेपदेषु ७।३ अनत: ५।१। स०-न अत् इति अनत्, तस्मात्-अनत: (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य, झ:, अद् इति चानुवर्तते । अन्वय:-अनतोऽङ्गाद् आत्मनेपदेषु प्रत्ययस्य झोऽत् ।
अर्थ:-अनत: अनकारान्ताद् अङ्गाद् उत्तरस्य आत्मनेपदेषु वर्तमानस्य प्रत्ययावयवस्य झस्य स्थानेऽदादेशो भवति ।
उदा०-ते चिन्वते । ते लुनते। ते पुनते । ते चिन्वताम् । ते लुनताम् । ते पुनताम् । ते अचिन्वत। ते अलुनत । ते अपुनत ।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(अनत:) अकारान्त से भिन्न (अङ्गात्) अङ्ग से परे (आत्मनेपदेषु) आत्मनेपद-संज्ञक प्रत्ययों में विद्यमान (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के अवयवभूत (झ:) झकार के स्थान में (अत्) अत् आदेश होता है।
उदा०-ते चिन्वते । वे सब चयन करते हैं। ते लुनते। वे सब काटते हैं। ते पुनते । वे सब पवित्र करते हैं। ते चिन्वताम् । वे सब चयन करें। ते लुनताम् । वे सब लावणी करें। ते पुनताम् । वे सब पवित्र करें। ते अचिन्वत । उन सब ने चयन किया। ते अलुनत । उन सब ने लावणी की। ते अपुनत । उन सब ने पवित्र किया।
सिद्धि-(१) चिन्वते । चि+लट् । चि+ल् । चि+झ । चि+श्नु+झ। चि+नु+अत। चि+व+अते। चिन्वते।
यहां चित्र चयने (स्वा०3०) धातु से लट' प्रत्यय है। 'स्वादिभ्यः श्नुः' (३।१।७३) से 'अनु' विकरण-प्रत्यय होता है। इस सूत्र से आत्मनेपद-संज्ञक प्रत्ययों में विद्यमान, प्रत्यय के अवयवभूत झकार के स्थान में 'अत्' आदेश होता है। 'हुश्नुवोः सार्वधातुके (६।४।८७) से यणादेश (व) होता है। टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'अत' के टि-भाग (अ) को एकार आदेश होता है। यहां झ' प्रत्यय अनकारान्त अङ्ग से उत्तर स्पष्ट है।
लोट्लकार में-चिन्वताम् । 'आमेत:' (३।४।९०) से एकार को 'आम्' आदेश होता है। लङ्लकार में-अचिन्वत ।
(२) लुनते। 'लून छेदने (क्रया० उ०) धातु से लट् प्रत्यय है। ‘श्नाभ्यस्तयोरात:' (६।४।११२) से 'श्ना' प्रत्यय के आकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। लोट्लकार में-लुनताम् । लङ्लकार में अलुनत ।
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