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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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उदा०- - (फ) नाडायनः । नड का पौत्र । चारायण: । चर का पौत्र । (ढ) सौपर्णेयः । सुपर्णी का पुत्र । वैनतेयः । विनता का पुत्र (गरुड़) । (ख) आढयकुलीनः । आढ्यकुल में उत्पन्न। श्रोत्रियकुलीनः । वेदपाठी कुल में उत्पन्न। (छ) गार्गीयः । गार्ग्य का शिष्य । वात्सीयः । वात्स्य का शिष्य । (घ) क्षत्रियः । राजा का पुत्र । फ-आदि में अकार उच्चारणार्थ है ।
सिद्धि - (१) नाडायन: । नड+फक् । नाड्+आयन। नाडायन+सु। नाडायनः । यहां 'नड' शब्द से 'नडादिभ्यः फक्' (४|१|९९ ) से गोत्रापत्य - अर्थ में 'फक्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'फ्' के स्थान में 'आयन्' आदेश होता है। ऐसे ही 'चर' शब्द से- चारायण: ।
(२) सौपर्णेयः । सुपर्णी+ढक् । सौपर्ण्+एय । सौपर्णेय+सु । सौपर्णेयः ।
यहां 'सुपर्णी' शब्द से 'स्त्रीभ्यो ढक्' (४ । १ । १२०) से अपत्य - अर्थ में 'ढक्' प्रत्यय है। इस सूत्र से '' के स्थान में 'एय्' आदेश होता है। ऐसे ही विनता' शब्द से-वैनतेयः । (३) आढ्यकुलीनः । आढ्यकुलीन+ख । आढ्यकुलीन+ईन। आढ्यकुलीन+सु । आढ्यकुलीनः ।
यहां 'आढ्यकुल' शब्द से 'कुलात् खः' (४ 1१1१४०) से 'ख' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश होता है। ऐसे ही 'श्रोत्रियकुल' शब्द से श्रोत्रियकुलीनः । (४) गार्गीय: । गार्ग्य + छ। गार्ग्यू + ईय। गार्ग्+ईय। गार्गीय + सु । गार्गीयः ।
यहां 'गार्ग्य' शब्द से 'तस्येदम्' ( ४ 1१1१२०) से इदम् - अर्थ में 'वृद्धाच्छः ' (४ | २ ।११४) से यथाविहित 'छ' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'छ्' के स्थान में (ईन) आदेश होता है। 'यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से अङ्ग के अकार का लोप और 'आपत्यस्य च तद्धितेऽनाति' (६ । ४ । १५१) से यकार का लोप होता है। ऐसे ही 'वात्स्य' शब्द से- वात्सीयः ।
(५) क्षत्रियः । क्षत्र+घ । क्षत्र+इय | क्षत्रिय+सु । क्षत्रियः ।
यहां 'क्षत्र' शब्द से 'क्षत्राद् घः' (४|१|१३८) से अपत्य- अर्थ में 'घ' प्रत्यय है । इस सूत्र से 'घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है । अन्त-आदेशः
(३) झोऽन्तः | ३ |
प०वि० - झ: ६ । १ अन्तः १ । १ ।
अनु० - अङ्गस्य इत्यनुवर्तते । 'प्रत्ययादीनाम्' इत्यस्माच्च प्रत्ययग्रहणमनुवर्तते, आदिग्रहणं निवृत्तम् ।
अन्वयः-अङ्गात् प्रत्ययस्य झोऽन्तः ।
अर्थ:
:- अङ्गात् परस्य प्रत्ययावयवस्य झस्य स्थानेऽन्तादेशो भवति ।
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