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________________ सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः १७१ उदा०-(एकाच्) आदिवान्, आशिवान्, पेचिवान्, शेकिवान् । (आत्) ययिवान्, तस्थिवान्। (घस्) जक्षिवान्। आर्यभाषा: अर्थ-(एकाजाद्घसिभ्य:) कृतद्विवचन, एक अच्वाले, आकारान्त और घस् इन (अङ्गेभ्य:) अङ्गों से परे (वसो:) वसु प्रत्यय को (इट्) इडागम होता है। उदा०-(एकाच) आदिवान् । भक्षण करनेवाला। आशिवान् । भोजन करनेवाला। पेचिवान् । पकानेवाला। शेकिवान् । समर्थ होनेवाला। (आत्) ययिवान् । पहुंचानेवाला। तस्थिवान् । ठहरनेवाला। (घस्) जक्षिवान् । भक्षण करनेवाला। ___ सिद्धि-(१) आदिवान् । अद्+लिट् । अद्+क्वसु। अद्+वसु । अद्-अद्+वस् । अ-अद+वस् । आ-अद्+वस् । आद्+इट्+वस् । आदिव। आदिवस+सु । आदिव नुम् स्+स् । आदिवन्स्+स् । आदिवान्स्+स् । आदिवान्स्+0/ आदिवान् । आदिवान्। यहां 'अद भक्षणे' (अदा०प०) धातु से 'छन्दसि लिट्' (३।२।१०५) से लिट् प्रत्यय, क्वसुश्च' (३।२।१०७) से लकार के स्थान में क्वसु' आदेश है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से 'अद्’ को द्वित्व, हलादि: शेषः' (६।४।६०) से अभ्यास-कार्य, 'अत आदे:' (६।४।७०) से अभ्यास को दीर्घ, 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९९) से सवर्ण दीर्घ होता है। इस स्थिति में इस सूत्र से 'वसु' को इडागम होता है। उगिदचा सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७ ११ १७०) से नुम्' आगम, सान्तमहत: संयोगस्य (६।४।१०) से दीर्घ, 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से संयोगान्त सकार का लोप होता है। ऐसे ही 'अश भोजने' (क्रया०प०) धातु से-आशिवान् । डुपचष् पाके' (भ्वा०प०) धातु से-पेचिवान् । 'अत एकहलमध्येऽनादेशादेर्लिटि' (६।४।१२०) से एत्त्व और अभ्यास का लोप होता है। 'शक्ल शक्तौ' (स्वा०प०) धातु से-शेकिवान् । 'या प्रापणे' (अदा०प०) धातु से-ययिवान् । 'छा गतिनिवत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से-तस्थिवान् । 'शर्पूर्वाः खयः' ७।४।६१) से अभ्यास का खय् (थ्) वर्ण शेष और 'आतो लोप इटि च (६।४।६४) से अङ्ग के आकार का लोप होता है। (२) जक्षिवान् । अद्+लिट् । अद्+क्वसु । घस्+वसु । घस्+इट्+वस् । घस्-घस्+ इ+वस् । घ-घ्स्+इ+वस् । झ-घस्+इ+वस् । ज-कष्+इ+वस् । ज-क्षिवस्+सु । जक्षिवान् । यहां 'अद भक्षणे' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् लिट' प्रत्यय और इसके स्थान में क्वसु' आदेश है। लिट्यन्यतरस्याम्' (२।४।४०) से 'अद्' के स्थान में घस्लु' आदेश है। इस सूत्र से घस्' से परे 'वसु' को इडागम होता है। 'गमहन०' (६।४।९८) से 'घस्' का उपधालोप, 'कुहोश्चुः' (७।४।६२) से घकार को चवर्ग झकार और 'अभ्यासे चर्च' (८।४।५४) से झकार को जश् जकार होता है और ‘खरि च' (८।४।५५) से परवर्ती घकार को चर् ककार और 'शासिवसिघसीनां च' (८१३।६०) से षत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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