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बुभूति
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सं० धातुः शब्दरूपम्
भाषार्थ: (९) ऊर्गु प्रौर्जुनविषति वह आच्छादि करना चाहता है। प्रौर्जुनविषति
-समप्रौर्जुनूषति
-सम(१०) भर बिभरिषति वह धारण-पोषण करना चाहता है।
-सम(११) ज्ञपि जिज्ञपयिषति वह धारण-पोषण करना चाहता है। ज्ञीप्सति
-सम(१२) सनि सिसनिषति वह दान करना चाहता है। सिषासति
-समआर्यभाषा: अर्थ-(इवन्त०) इव् जिसके अन्त में हैं उससे तथा ऋध, भ्रस्ज, दम्भु, श्रि, स्व, यु, ऊर्गु, भर, ज्ञपि और सन् इन (अङ्गेभ्य:) अङ्गों से परे (वलादे:) वलादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक (सन:) सन्-प्रत्यय को (वा) विकल्प से (इट) इडागम होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) दिदेविषति । यहां दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' (दि०प०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से इच्छा-अर्थ में सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से सन्’ को इडागम होता है। तत्पश्चात् सनन्त दविष' धातु से द्वित्व और लट्' प्रत्यय है।
(२) दुयूषति । दिव्+सन्। दि ऊ+स। द्यू+स। घर्ष। द्यूष्-यूष। दु+यूष । दुयूष+लट् । दुयूषति।
यहां पूर्वोक्त दिव्' धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। विकल्प-पक्ष में इडागम नहीं है। हलन्ताच्च' (१।२।१०) से सन्' प्रत्यय को कित्त्व, च्छ्वोः शूडनुनासिके च (६।४।१९) से वकार को ऊल्-आदेश, 'इको यणचि' (६।१।७६) से यणादेश होकर 'सन्यडो:' (६।१।९) से 'युष' को द्वित्व होता है। हलादि: शेषः' (७।४।६०) से आदि-हल् (व) का शेषत्व और ह्रस्व:' (७।४।५९) से अभ्यास को ह्रस्व (उ) होता है।
ऐसे ही षिवु तन्तुसन्ताने (दि०प०) धातु से-सिसेविषति, सुस्यूषति ।
(३) अदिधिषति । यहां ऋधु वृद्धौं (दि०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। 'पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से लघूपध गुण
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