________________
१४२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(वृ) वुवूषते, विवरिषते, विवरीषते। प्रावुवूपति, प्राविवरिषति, प्राविवरीषति। (ऋकारान्त:) तितीर्षति, तितरिषति, तितरीषति । आतिस्तीर्षते, आतिस्तरिषते, आतिस्तरीषते। 'सनि ग्रहगुहोश्च' (७ ।२।१२) इति इटप्रतिषेधे प्राप्ते पक्षे इडागमो विधीयते।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(वृतः) वृ-इस और ऋकारान्त (अङ्गात्) अङ्ग से परे (वलादे:) वलादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक (सन:) सन् प्रत्यय को (वा) विकल्प से (इट) इडागम होता है।
उदा०-(व) वुवूर्षते, विवरिषते, विवरीषते। वह सेवा करना चाहता है। प्रावुर्षति, प्राविवरिषति, प्राविवरीषति । वह आच्छादित करना चाहता है। (ऋकारान्त) तितीर्षति, तितरिषति, तितरीषति । वह तरना चाहता है। आतिस्तीपते, आतिस्तरिषते, आतिस्तरीषते। वह आच्छादित करना चाहता है।
सिद्धि-(१) वुवूर्षते । वृ+सन्। वृ+स । वृ+स। वुर्+स । वुर् स्-वुरस। वु-वुर्स । वुवूर्ष । वुवुर्ष+लट् । वुवूषते।
___ यहां वङ् सम्भक्तौ' (क्रया०आ०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तकादिच्छायां वा' (३।१।७) से सन्' प्रत्यय है। 'इको झल्' (१।२।९) से सन्' प्रत्यय किद्वत् है। 'अज्झनगमां सनि' (६।४।१६) से अङ्ग (वृ) को दीर्घ (वृ) होता है। उदोष्ठ्यपूर्वस्य' (७।१।१०२) से उकार-आदेश और यह उरण रपरः' (१।१।५१) से रपर (तुर्) होता है। 'सन्यङोः' (६।१।९) से सनन्त धातु को द्वित्व और हलादिः शेष:' (७।४।६०) से आदिम हल् () शेष रहता है और हलि च' (८।२७७) से दीर्घ (वू) है। इस सूत्र से सन्' को इडागम का प्रतिषेध होता है। विकल्प-पक्ष में इडागम है-विवरिषते। वृतो वा' (७।२।३८) से इडागम को दीर्घ होता है-विवरीषते ।
ऐसे ही प्र और आङ् उपसर्गपूर्वक वृञ् आच्छादने (स्वा०उ०) धातु से-प्रावुवूर्षति, प्राविवरिषति, प्राविवरीषति। तृ प्लवन्तसन्तरणयोः' (भ्वा०प०) धातु से-तितीर्षति, तितरिषति, तितरीषति। आङ्-उपसर्गपूर्वक 'स्तृञ् आच्छादने (क्रया उ०) धातु से-आतिस्तीर्षति, आतिस्तरिषति, आतिस्तरीषति । इडागम-विकल्प:
(८) लिङ्सिचोरात्मनेपदेषु।४२। प०वि०-लिङ्-सिचो: ७।२ आत्मनेपदेषु ७।३।
स०-लिङ् च सिच् च तौ लिङ्सिचौ, तयो:-लिङ्सिचो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org