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________________ सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः १३६ आर्यभाषा: अर्थ- (ग्रह:) ग्रह इस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (अलिट:) लिट् से भिन्न (वलादे:) वलादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक प्रत्यय के (इट:) इडागम को (दीर्घ:) दीर्घ होता है। उदा०-ग्रहीता । ग्रहण करनेवाला। ग्रहीतुम् । ग्रहण करने के लिये। ग्रहीतव्यम् । ग्रहण करना चाहिये। सिद्धि-(१) ग्रहीता। यहां 'ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से पूर्ववत् तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इडागम को दीर्घ होता है। तुमुन्-ग्रहीतुम् । तव्यत्-ग्रहीतव्यम् । इटो दीर्घत्व-विकल्पः (४) वृतो वा ।३८ । प०वि०-वृ-ऋत: ५।१ वा अव्ययपदम् । स०-वृश्च ऋच्च एतयो: समाहार:-वृत्, तस्मात्-वृत: (समाहारद्वन्द्व:)। अनु०-अङ्गस्य, आर्धधातुकस्य, इट, वलादे:, दीर्घ इति चानुवर्तते। अन्वयः-वृतोऽङ्गाद् वलादेरार्धधातुकस्य इटो वा दीर्घः । अर्थ:-वृ-इत्येतस्माद् ऋकारान्ताच्चाङ्गाद् उत्तरस्य वलादेरार्धधातुकस्य इटो विकल्पेन दीर्घो भवति। उदा०-(वृ) वरिता, वरीता। प्रवरिता, प्रवरीता। (ऋकारान्त:) तरिता, तरीता। आस्तरिता, आस्तरीता। आर्यभाषा: अर्थ-(वृत:) वृ' इस और ऋकारान्त (अङ्गात्) अङ्ग से परे (वलादे:) वलादि (आर्धधातुकस्य) आर्धधातुक प्रत्यय के (इट:) इडागम को (वा) विकल्प से (दीर्घः) दीर्घ होता है। उदा०-(व) वरिता, वरीता । सेवा करनेवाला। प्रवरिता, प्रवरीता । आच्छादित करनेवाला। (ऋकारान्त) तरिता, तरीता । तरनेवाला। आस्तरिता, आस्तरीता। आच्छादित करनेवाला। सिद्धि-(१) वरिता । यहां वृङ् सम्भक्तौ धातु से पूर्ववत् तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इडागम होता है। विकल्प-पक्ष में इडागम को दीर्घ होता है-वरीता। प्र-उपसर्ग पूर्वक वृञ आच्छादने (स्वा०३०) धातु से-प्रवरिता, प्रवरीता। (२) तरिता । यहां ऋकारान्त त प्लवनसन्तरणयोः' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् तुच्' प्रत्यय है। विकल्प-पक्ष में इडागम को दीर्घ होता है-तरीता। आङ्पूर्वक स्तृञ् आच्छादने (क्रयाउ०) धातु से-आस्तरिता, आस्तरीता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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