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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
११६
अर्थः-क्षुब्धस्वान्तध्वान्तलग्नम्लिष्टविरिब्धफाण्टबाढानि शब्दरूपाणि यथासंख्यं मन्थमनस्तम:सक्तविस्पष्टस्वरानायासभृशेष्वर्थेषु निपात्यन्ते । उदाहरणम्-क्षुब्धो मन्थ: । स्वान्तं मनः । ध्वान्तं तमः। लग्नं सक्तम्। म्लिष्टम् अविस्पष्टम्। विरिब्धं स्वरः । फाण्टोऽनायासः । बाढं भृशम्।
आर्यभाषाः अर्थ- (क्षुब्ध० बाढानि ) क्षुब्ध, स्वान्त, ध्वान्त, लग्न, म्लिष्ट, विरिब्ध, फाण्ट, बाढ ये शब्दरूप यथासंख्य ( मन्थ० भृशेषु) मन्थ, मनः, तमः, सक्त, अविस्पष्ट, स्वर, अनायास, भृश इन अर्थों में निपातित हैं ।
उदा० - क्षुब्धो मन्थः । क्षुब्ध का अर्थ मन्थ है, यहां मन्थ का अभिप्राय जलादि द्रव पदार्थ से युक्त सत्तू है । स्वान्तं मनः । स्वान्त का अर्थ मन है । बाह्यविषयों में अविक्षिप्त एवं अनाकुल मन स्वान्त कहलाता है। ध्वान्तं तमः । ध्वान्त का अर्थ त (अन्धकार) है। लग्नं सक्तम् । लग्न का अर्थ सक्त (फंसा हुआ) है। म्लिष्टम् अविस्पष्टम् । क्लिष्ट का अर्थ अविस्पष्ट (अव्यक्त) है। विरिब्धं स्वरः । विरिब्ध का अर्थ स्वर (ध्वनि) है । फाण्टम् अनायास: । फाण्ट का अर्थ अनायास है। जो न पकाया गया हो और न पीसा गया हो वह कषाय पदार्थ जो कि केवल जलसम्पर्क मात्र से पृथग्भूत रसवाला कुछ उष्णपदार्थ फाण्ट कहाता है। यह अल्प प्रयत्न से साध्य होने से अनायास कहलाता है। 'यदनृतमपिष्टं च कषायमुदकसम्पर्कमात्राद्विभक्तरसमीषदुष्णं तत् फाण्टम्” (काशिका) । बाढं भृशम् । बाढ का अर्थ भृश (अतिशय) है।
सिद्धि - (१) क्षुब्ध: । क्षुभ्+क्त । क्षुभ्+त। क्षुभ्+ध । क्षुब्+ध । क्षुब्ध+सु । क्षुब्धः । यहां 'क्षुभ सञ्चलने' (दि०प०) धातु से 'निष्ठा' (३ । २ । १०२ ) से 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से मन्थ- अर्थ में इडागम का अभाव निपातित है । 'झषस्तथोर्धोऽधः ' (८ 1२1४०) से तकार को धकार और 'झलां जश् झशिं' (८/४/५३) से भकार को जश् बकार होता है।
(२) स्वान्तम् । स्वन् +क्त । स्वन्+त। स्वान् + त । स्वान्त+सु । स्वान्तम् । यहां 'स्वन शब्दे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से मन- अर्थ में इडागम का अभाव निपातित है। 'अनुनासिकस्य क्विझलो: क्ङिति (६।४।१५) से दीर्घ होता है।
(३) ध्वान्तम् । ध्वन् + क्त । ध्वन्+त। ध्वाद्+त। ध्वान्त+सु । ध्वान्तम् । यहां 'ध्वन शब्दे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से तम-अर्थ में इडागम का अभाव निपातित है । पूर्ववत् दीर्घ होता है।
(४) लग्न: | लग्+क्त | लग्+त। लग्+न । लग्न+सु | लग्नः ।
यहां 'लगे सङ्गे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है । इस सूत्र से सक्त- अर्थ में निष्ठा के तकार को नकार आदेश निपातित है।
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