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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् इट्-प्रतिषेधः
(५) सनि ग्रहगुहोश्च ।१२। प०वि०-सनि ७ १ ग्रह-गुहो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) च अव्ययपदम् । स०-ग्रहश्च गुह् च तौ ग्रहगुहौ, तयो:-ग्रहगुहो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-अङ्गस्य, न, इट्, उक इति चानुवर्तते । अन्वय:-ग्रहगुहिभ्याम् उकश्चाङ्गात् सन इड् न ।
अर्थ:-ग्रहगुहिभ्याम् उगन्ताच्चाङ्गाद् उत्तरस्य सन इडागमो न भवति।
उदा०-(ग्रह:) जिघृक्षति । (गुह:) जुघुक्षति । (उगन्त:) रु-रुरूषति। लू-लुलूषति।
आर्यभाषा: अर्थ-(ग्रहगुहिभ्याम् ) ग्रह और गुह (च) और (उक:) उक् वर्ण जिसके अन्त में है उस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (सन:) सन् प्रत्यय को (इट्) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०-(ग्रह) जिघृक्षति । वह ग्रहण करना चाहता है। (गुह) जुघुक्षति। वह छुपाना चाहता है। (उगन्त) रु-रुरूषति । वह शब्द करना चाहता है। लू-लुलूषति । वह काटना चाहता है।
सिद्धि-(१) जिघृक्षति । ग्रह+सन् । गृह+स । गृद+स। गृक्+स । गृक्+ष । घृक्+ए । घृष्-घृक्ष । घृ-घृक्ष । जु-घृक्ष । जर्-घृक्ष । जि-घृक्ष । जिघृक्ष । जिघृक्ष+लट् । जिघृक्षति ।
__ यहां 'ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१७) से सन्' प्रत्यय है। 'रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ: सँश्च' (१।२।८) से सन्' प्रत्यय किद्वत् होता है। 'अहिज्यावयि०' (६।१।१६) से ग्रह' को सम्प्रसारण (गृह), हो ढः' (८।२।३१) से हकार को ढकार आदेश (गृद्), 'पढो: क: सि (८।२।४१) से ढकार को ककार आदेश (ग) और 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से षत्व होता है (गृक्ष)। एकाचो बशो भष्०' (८।२।३७) से भष्भाव से गकार को घकार होता है। सन्यङो:' (६।१।९) से द्वित्व होकर कुहोश्चुः' (७ ।४।६२) से अभ्यासस्थ धकार को चवर्ग जकार, उरत (७।४।६६) से अभ्यासस्थ ऋकार को अकार और इसे (सन्यत:) से इकार आदेश होता है। इस सूत्र से सन्' प्रत्यय को 'इट्' आगम का प्रतिषेध है।
(२) जुघुक्षति । गुह संवरणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । (३) रुरूषति। 6 शब्दें' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् । (४) जुघुक्षति । गुह संवरणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ।
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