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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ७६ यहां 'भिदिर् विदारणे' (रुधा०प०) धातु से लङ् प्रत्यय और तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में सिप आदेश है। 'रुधादिभ्यः श्नम्' (३।१।७८) से 'श्नम्' विकरण-प्रत्यय है । 'दश्च' ( ८12 1७५ ) से दकार को रुत्व और इस सूत्र अपृक्तसंज्ञक 'सि' प्रत्यय (स) का लोप होता है। ऐसे ही 'छिदिर् द्वैधीकरणे' (रुधा०प०) धातु से - अच्छिन्नः । तोपादेश: (१०) एङ्हस्वात् सम्बुद्धेः । ६६ । प०वि०-एङ्-ह्रस्वात् ५ ।१ सम्बुद्धे: ६ ।१ । स०-एङ् च ह्रस्वश्च एतयोः समाहारः एङह्रस्वम्, तस्मात्-एङ्ह्रस्वात् ( समाहारद्वन्द्वः) । अनु० - लोप:, हल् इति चानुवर्तते । अन्वयः-एङ्ह्रस्वात् सम्बुद्धेर्हलो लोपः । अर्थ:- एङन्ताद् हलन्ताच्च प्रातिपदिकात् परस्य सम्बुद्धेर्हलो लोपो भवति । उदा० - एङन्तात् हे अग्ने ! हे वायो ! हस्वान्तात् - हे देवदत्त ! हे नदि ! हे वधु ! हे कुण्ड ! आर्यभाषाः अर्थ - ( एङ्हस्वात् ) एङन्त और ह्रस्वान्त प्रातिपदिक से परे (सम्बुद्धेः) सम्बुद्धिसंज्ञक (हल् ) हल् वर्ण का ( लोप: ) लोप होता है। उदा० - एडन्त - हे अग्ने ! हे वायो ! हस्वान्त- हे देवदत्त ! हे नदि ! हे वधू ! हे कुण्ड ! सिद्धि - (१) अग्ने | अग्नि+सु । अग्ने+स् । अग्ने+01 अग्ने । यहां 'अग्नि' शब्द से 'स्वौजस् ० ' ( ४ 1१ 1२) से सम्बुद्धि-संज्ञक 'सु' प्रत्यय है इसकी 'एकवचनं सम्बुद्धि:' ( २ । ३ । ४९) से सम्बुद्धि संज्ञा है। इस सूत्र से एङन्त 'अग्ने' शब्द से परे सम्बुद्धि-संज्ञक हल् 'स्' का लोप होता है। ऐसे ही 'वायु' शब्द से - हे वायो ! (२) देवदत्त । देवदत्त + सु । देवदत्त+स् । देवदत्त+0 । देवदत्त । यहां देवदत्त' शब्द से पूर्ववत् 'सु' प्रत्यय और उसकी सम्बुद्धि संज्ञा है। इस सूत्र से ह्रस्वान्त देवदत्त' शब्द से परे सम्बुद्धि-संज्ञक हल् 'स्' का लोप होता है । (३) नदि । नदी+सु । नदि+स्। नदि+0। नदि। हे 'नदी' शब्द को 'अम्बार्थनद्योर्हस्व:' (७ | ३ |१०७) से ह्रस्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - हे वधु !
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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