________________
७६
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-अपृक्तसंज्ञकस्य वि-प्रत्ययस्य लोपो भवति ।
उदा०-ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप् (३।२।८७)-ब्रह्महा, भ्रूणहा। स्पृशोऽनुदके क्विन् (३।२।५८) घृतस्पृक्, तैलस्पृक् । भजो ण्वि: (३।२।६२) अर्धभाक्, पादभाक्, तुरीयभाक् ।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(अपृक्तस्य) अपृक्त-संज्ञक (व:) वि प्रत्यय का (लोप:) लोप होता है।
उदा०-ब्रह्मभूणवृत्रेषु क्विप् (३।२।८७) ब्रह्महा। ब्राह्मण को मारनेवाला। भ्रूणहा । गर्भ को नष्ट करनेवाला। स्पृशोऽनुदके क्विन् (३।२।५८) घृतस्पृक् । घृत का स्पर्श करनेवाला। तैलस्पन । तैल का स्पर्श करनेवाला। भजो ण्वि: (३।२।६२) अर्धभाक् । आधा भाग प्राप्त करनेवाला। पादभाक् । चौथा भाग प्राप्त करनेवाला। तुरीयभाक् । चौथा भाग प्राप्त करनेवाला।
सिद्धि-(१) ब्रह्महा। ब्रह्मन्+अम्+हन्+क्विम्। ब्रह्म+हन्+वि। ब्रह्म+हन्+० । ब्रह्महन्+सु । ब्रह्महान्+स् । ब्रह्महान्+0 | ब्रह्महा० । ब्रह्महा।
यहां ब्रह्मन् कर्म उपपद होने पर हन हिंसागत्यो:' (अदा०प०) धातु से ब्रह्मभ्रूण वत्रेषु क्विप्' (३।२।८७) से 'क्विप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अपृक्तसंज्ञक वि' प्रत्यय का लोप होता है। 'वि' में इकार उच्चारणार्थ है। वस्तुत: व्' का लोप होता है। वेदपृक्तस्य (६।१।६५) से 'व्’ की अपृक्त संज्ञा है। ऐसे ही-भूणहा।
(२) घृतस्पृक् । घृत+अम्+स्पृश्+क्विन् । घृत+स्पृश्+वि। घृत+स्पृश्+० । घृतस्पृख् । घृतस्पग्। घृतस्पृक्+सु। घृतस्पृक् ।
यहां घृत सुबन्त उपपद होने पर 'स्पृश स्पर्शने (तु०प०) धातु से 'स्पृशोऽनुदके क्विन्' (३।२।५८) से क्विन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अपृक्त संज्ञक वि' प्रत्यय का लोप होता है। 'क्विन्प्रत्ययस्य कुः' (८।२।६२) से 'स्पृश्' के 'श्' को कुत्व 'ख', 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से 'ख्' को 'ग्' और वाऽवसाने (८।४।५५) से 'ग्' को 'क्' होता है। ऐसे ही-तैलस्पृक् ।
(३) अर्धभाक् । अर्ध+अम्+भज्+ण्वि । अर्ध+भाज्+वि । अर्ध+भाज्+० । अर्धभाज् । अर्धभाग्। अर्धभाक्+सु। अर्धभाक् ।
यहां अर्ध सुबन्त उपपद होने पर 'भज सेवायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से 'भजो ण्विः' (३।२।६२) से वि' प्रत्यय है। इस सूत्र से अपक्त संज्ञक वि' प्रत्यय का लोप होता है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'भज्' को उपधावृद्धि, चो: कुः' (८।२।३०) से ज्' को कुत्व ग और वाऽवसाने (८।४।५५) से 'ग्' को चर्व क् होता है। ऐसे ही-पादभाक्, तुरीयभाक् ।