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________________ ७०७ षष्टाध्यायस्य चतुर्थः पादः स्थानी आदेश: प्रत्यय: शब्दरूपम् भाषार्थ: (६) गुरु गर् इष्ठन् गरिष्ठ: बहुतों में अति गुरु (भारी)। इमनिच् गरिमा गुरुता (भारीपन)। ईयसुन् गरीय: दो में अति गुरु (भारी)। वृद्धम् वर्षिः इष्ठन् वर्षिष्ठ: बहुतों में अति वृद्ध (बड़ा)। इमनिच् xx x x x x ईयसुन् वर्षीयान् दो में अति वृद्ध (बड़ा)। (८) तृप्रम् त्रप् इष्ठन् त्रपिष्ठ: बहुतों में अति तृप्र (सन्तुष्ट)। इमनिच xxxxxx ईयसुन् पीयान् दो में अति तृप्र (सन्तुष्ट)। (९) दीर्घम् द्राघिः इष्ठन् द्राघिष्ठ: बहुतों में अति दीर्घ (लम्बा)। इमनिच् द्राधिमा दीर्घता (लम्बाई)। ईयसुन् द्राधीयान् दो में अति दीर्घ (लम्बा)। (१०) वृन्दारक: वृन्दः इष्ठन् वृन्दिष्ठ: बहुतों में अति वृन्दारक (पूज्य)। इमनिच x x x x x x ईयसुन् वृन्दीयान् दो में अति वृन्दारक (पूज्य)। आर्यभाषा: अर्थ-(प्रिय०वृन्दारकाणाम्) प्रिय, स्थिर, स्फिर, उरु, बहुल, गुरु, वृद्ध, तृप्र, दीर्घ, वृन्दारक इन (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अगों के स्थान में (इष्ठेमेयस्सु) इष्ठन्, इमनिच्, ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर यथासंख्य (प्र०वृन्दा:) प्र, स्थ, स्फ, वर्, बंहि, गर्, वर्षि, त्रप्, द्राघि, वृन्द आदेश होते हैं। उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृतभाग में देख लेवें। सिद्धि-(१) प्रेष्ठः । प्रिय+इष्ठन् । प्रिय+इष्ठ। प्र+इष्ठ। प्रेष्ठ+सु। प्रेष्ठः। यहां प्रिय' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौं' (५।३।५५) से अतिशायन (प्रकर्ष) अर्थ में 'इष्ठन्' प्रत्यय है। इस प्रत्यय के परे होने पर इस सूत्र से प्रिय' को 'प्र' आदेश होता है। ऐसे ही-स्थेष्ठः' आदि। (२) प्रेयान् । यहां 'प्रिय' शब्द से द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ (५।३।५७) से 'ईयसुन्' प्रत्यय है। इस प्रत्यय के परे होने पर इस सूत्र से प्रिय' को 'प्र' आदेश होता है। ऐसे ही- 'स्थेयान्' आदि।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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