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________________ ६५५ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(अच:) जिसके अन्त में अञ्चति है, उस (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग के (अल्लोप:) अकार का लोप होता है। उदा०-त्वं दधीच: पश्य । तू दधि (दही) प्राप्तकर्ता को देख। दधीचा। दधि प्राप्तकर्ता केद्वारा। दधीचे। दधि प्राप्तकर्ता केलिये। त्वं मधूच: पश्य । तू मधु प्राप्तकर्ता को देख। मधूचा । मधु प्राप्तकर्ता केद्वारा। मधूचे। मधु प्राप्तकर्ता केलिये।। सिद्धि-(१) दधीच: । दधि+अञ्चु+क्विन्। दधि+अञ्च्+वि। दधि+अच्+वि। दधि+अच्+० । दधी+अच्+० ।। दधि+अच्+शस्। दधि+अच्+अस्। दधि+०च्+अस् । दधी+च+अस्। दधीचस् । दधीच:। यहां प्रथम दधि-उपपद 'अञ्चु गतिपूजनयो:' (भ्वा०प०) धातु से ऋत्विग्दधृक्छ' (३।२।५९) से क्विन्' प्रत्यय है। अनिदितां हल उपधाया: विडति (६।४।२४) से 'अञ्च्’ के अनुनासिक (न्) का लोप और वरपृक्तस्य' (६।१।६६) से 'वि' का सर्वहारी लोप होता है। इस सत्र से 'अञ्चति' के 'अच्’ रूप के अकार का लोप होता है। चौ' (६।३।१३८) से दधि' के इकार को दीर्घ होता है। ऐसे ही-दधीचा (टा)। दधीचे (डे)। (२) मधूचः । मधु-उपपद 'अञ्चु' धातु से पूर्ववत् । ईफारादेशः (११) उद ईत्।१३६ । प०वि०-उद: ५।१ ईत् १।१। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, अच इति चानुवर्तते। अन्वय:-उदोऽचो भस्य अङ्गस्य {अत:} ईत् । अर्थ:-उद: परस्य अच इत्येतस्य भसंज्ञकस्य अङ्गस्य (अकारस्य} ईकारादेशो भवति। उदा०-त्वं उदीच: पश्य । उदीचा। उदीचे । आर्यभाषा: अर्थ-(उद:) उत्-उपसर्ग से परे (अच:) अच्–अञ्चति इस (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग के {अत:} अकार को (ईत्) ईकार आदेश होता है। उदा०-त्वं उदीच: पश्य । तू उत्तरगामियों को देख। उदीचा। उत्तरगामी के द्वारा। उदीचे। उत्तरगामी केलिये। सिद्धि-उदीच:। यहां उत्-उपसर्गपूर्वक 'अञ्चु गतिपूजनयोः' (भ्वा०प०) 'ऋत्विग्दधृक्' (३।२।५९) से 'क्विन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से उत्-उपसर्ग से परे 'अच्' (अञ्चति) के अकार को ईकारादेश होता है। शेष कार्य दधीच:' (६।४।१३८) के समान है। ऐसे ही-उदीचा (टा) उदीचे (डे)।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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