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________________ ६८५ षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः अनु०-अङ्गस्य, भस्य, अल्लोप:, अन इति चानुवर्तते। अन्वय:-षपूर्वहन्धृतराज्ञाम् अनोऽणि अल्लोप: । अर्थ:-षपूर्वस्य हनो धृतराज्ञश्च अन्-अन्तस्य भस्य अङ्गस्य अणि प्रत्यये परतोऽकारलोपो भवति । उदा०-(षपूर्व:) उक्ष्णोऽपत्यम्-औक्ष्णः। तक्ष्णोऽपत्यम्-ताक्ष्ण: । (हन्) भ्रूणनोऽपत्यम्-ध्रौणन: । (धृतराजन्) धृतराज्ञोऽपत्यम्-धार्तराज्ञः । आर्यभाषा: अर्थ-(षपूर्वहन्धृतराज्ञाम्) षकार पूर्ववाले, हन् और धृतराजन् इन (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्गों के (अन:) अन् के (अल्लोप:) अकार का लोप होता है (अणि) अण् प्रत्यय परे होने पर। उदा०-(षपूर्व) उक्षा का अपत्य (सन्तान)-औक्षण। तक्षा का अपत्य-ताक्ष्ण। तक्षा खाती (बढ़ई)। (हन्) भ्रूणहा का अपत्य-भ्रौणघ्न। (धृतराजन् धृतराजा का अपत्य-धार्तराज्ञ। सिद्धि-(१) औक्षणः । उक्षन्+अण्। औक्षन्+अ। औक्ष्न्+अ। औक्षण+। औक्ष्ण+सु। औक्ष्णः। यहां उक्षन्' शब्द से तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से अपत्य अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र से षकारपूर्वी 'अन्' के अकार का 'अण्' प्रत्यय परे होने पर होप होता है। 'तद्धितेष्वचामादे: (७।२।११७) से अङ्ग को आदिवृद्धि और 'रषाभ्यां नो ण: समानपदें (८।४।१) से णत्व होता है। ऐसे ही 'तक्षन्' शब्द से-ताक्ष्णः । (२) प्रौणनः । यहां प्रथम 'भ्रूणहन्' शब्द में ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु' (३।२।८७) से हन्' धातु से क्विप्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् 'भ्रूणहन्' शब्द से अपत्य अर्थ में पूर्ववत् 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अण' प्रत्यय परे होने पर हन्' के अकार का लोप होता है। हो हन्तेणिन्नेषु' (७ ।३।५४) से हकार को कुत्व घकार होता है। (३) धार्तराज्ञः । यहां प्रथम धृत और राजन् शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। तत्पश्चात् 'धृतराजन्' शब्द से पूर्ववत् 'अण्' प्रत्यय है। अकारलोप-विकल्पः (८) विभाषा डिश्योः ।१३६ । प०वि०-विभाषा ११ डि-श्यो: ७।२। स०-डिश्च शीश्च तौ डीश्यौ, तयो:-डिश्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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