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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-स निगृहति । निगूहकः । साधुनिगृही। निगृहनिगूहम् । निगृहो वर्तते।
_ आर्यभाषा: अर्थ-(गोह:) गोह (अगस्य) अङ्ग की (उपधायाः) उपधा के स्थान में (अचि) अजादि प्रत्यय परे होने पर (ऊत्) ऊकारादेश होता है।
. उदा०-स निगृहति । वह छुपाता है। निगूहकः । छुपानेवाला। साधुनिगृही। छुपाने के स्वभाववाला। निगृहनिगूहम् । छुपा-छुपाकर। निगूहो वर्तते । छुपाना है।
सिद्धि-(१) निगृहति । नि+गुह+लट् । नि+गुह+ल। नि+गुह्+शप्+तिप् । नि+गुह+अ+ति। नि+गोह+अ+ति । नि+गूह+अ+ति। निगृहति।
यहां नि-उपसर्गपूर्वक गुहू संवरणे' (भ्वा०3०) धातु से वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से 'लट्' प्रत्यय है। 'कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय है। 'प्रगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से धातु को लघूपध गुण (ओ) होता है। इस सूत्र से अजादि शप्' प्रत्यय परे होने पर गोह' अङ्ग की उपधा (ओ) के स्थान में ऊकार आदेश होता है।
(२) निगूहकः । यहां नि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त गुह्' धातु से 'ण्वुल्तृचौं (३।१।१३३) से 'वुल्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) साधुनिगृही। यहां नि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त गुह्' धातु से 'सुष्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' (३।२।७८) से ताच्छील अर्थ में णिनि' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) निगृहनिगूहम् । यहां नि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'गुह्' धातु से 'आभीक्ष्ण्ये णमुल च' (३।४।२२) से णमुल्' प्रत्यय है। वा०-'आभीक्ष्ण्ये (द्व भवत:) (८।१।१२) से द्विर्वचन होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) निगूहः। यहां नि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'गुह' धातु से 'भावे' (३।३।१८) से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऊत्-आदेशः
(१५) दोषो णौ।६०। प०वि०-दोष: ६१ णौ ७।१। अनु०-अङ्गस्य, ऊत्, उपधाया इति चानुवर्तते। अन्वय:-दोषोऽङ्गस्य उपधाया णौ ऊत्।
अर्थ:-दोषोऽङ्गस्य उपधायाः स्थाने णौ प्रत्यये परत ऊकारादेशो भवति।