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________________ દર૪ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (७।३।८४) से इगन्त अङ्ग (ऊनि) को गुण और एचोऽयवायावः' (६।१७७) से आय्-आदेश होता है। (३) अर्दयीत् । यहां 'अर्द हिंसायाम्' (चु०उ०) धातु से पूर्ववत् लुङ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'लुङ्' प्रत्यय परे होने पर छन्द में अमाङ्योग में भी 'आडजादीनाम् (६।४।७२) से प्राप्त 'आट्' आगम नहीं होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (४) अवाप्सुः । वप्+लुङ्। अट्+व+ल। अ+वप्+लि+ल । अ+वप्+सिच्+झि। अ+वप्+स्+जुस् । अ+वाप्+स्+उस् । अवाप्सुः । यहां 'डुवप बीजसन्ताने छेदने च (भ्वा०3०) धातु से पूर्ववत् लुङ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से लुङ्' प्रत्यय परे होने पर छन्दविषय में माङ्योग में भी 'अट्' आगम होता है। “मा व: क्षेत्रे परबीजान्यवाप्सुः”। न माड्योगे' (६।४।७४) से माङ्योग में 'अट्' आगम का प्रतिषेध है। 'झेर्जुस' (३।४।१०८) से 'झि' के स्थान में 'जुस्' आदेश और वदव्रजहलन्तस्याच:' (७।२।३) से अङ्ग (वप्) को वृद्धि होती है। (५) अभित्था: । भिद्+लुङ्। अट्+भिद्+ल। अ+भिद्+च्लि+ल। अ+भिद्+ सिच्+थास्। अ+भिद्+स्+थास् । अ+भिद्+o+थास्। अ+भित्+थास्। अभित्थाः। यहां भिदिर विदारणे (रुधा०प०) धातु से पूर्ववत् लुङ' प्रत्यय है। इस सूत्र से लुङ्' प्रत्यय परे होने पर छन्दविषय में माड्योग में भी अङ्ग (भिद्) को 'अट्' आगम होता है-मा अभित्थाः। न माड्योगे (६।४।७४) से माङ्योग में 'अट्' आगम का प्रतिषेध है। 'झलो झलि' (८।२।२६) से सिच्’ के सकार का लोप होता है। (६) आव: । इस पद की सिद्धि पूर्ववत् है (द्र० ६।४।७३)। यहां माड्योग में भी अनजादि हलादि अङ्ग (वञ्) के छन्द में 'आट्' आगम है-मा आवः । यह सब बहुलवचन का प्रपञ्च है। आदेशप्रकरणम् रे-आदेश: (१) इरयो रे।७६। प०वि०-इरयोः ६ ।२ रे १।१ (सु-लुक्)। .. स०-इरश्च इरेश्च तौ इरयौ, तयो:-इरयोः । अनु०-बहुलम्, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि इरयो बहुलं रेः । अर्थ:-छन्दसि विषये 'इरे' इत्येतस्य स्थाने बहुलं रे-आदेशो भवति ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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