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________________ ५७६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-शासोऽङ्गस्य हौ शाः । अर्थ:-शासोऽङ्गस्य स्थाने हौ परत: शा-आदेशो भवति । उदा०-अनुशाधि गुरुवर ! प्रशाधि राजन् ! आर्यभाषा: अर्थ-(शास:) शास् (अङ्गस्य) अंग के स्थान में (हौ) हि प्रत्यय परे होने पर (शा:) शा-आदेश होता है। उदा०-अनुशाधि गुरुवर ! हे गुरुवर ! आज्ञा करो। प्रशाधि राजन् ! हे राजन् ! प्रशासन करो। सिद्धि-अनुशाधि। अनु+शास्+लोट् । अनु+शास्+सिप्। अनु+शास्+शप्+सि। अनु+शास्+o+हि । अनु+शा+हि । अनु+शा+धि। अनुशाधि। यहां अनु-उपसर्गपूर्वक शासु अनुशिष्टौं (अदा०प०) धातु से लोट् च (३।३।१६२) से विधि-आदि अर्थों में लोट्' प्रत्यय है। तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लादेश सिप्', कर्तरि शप' (३।१।६८) से शप्' विकरण-प्रत्यय और अदिप्रभृतिभ्यः शपः' (२।४।७२) से 'शप्' का लुक् होता है। सेटपिच्च' (३।४।८७) से 'सिप' के स्थान में 'हि' आदेश होता है। इस सूत्र से शास्' अंग को हि' परे होने पर शा-आदेश होता है। असिद्धवदत्राभात (३।४।२२) से इसे असिद्ध मानकर हुझल्भ्यो हेर्धि:' (६।४।१०१) से हि' को धि' आदेश होता है। ऐसे ही-प्रशाधि । ज-आदेशः (१४) हन्तेर्जः।३६ । प०वि०-हन्ते: ६।१ ज: १।१। अनु०-अङ्गस्य, हाविति चानुवर्तते। अन्वयः-हन्तेरङ्गस्य हौ जः । अर्थ:-हन्तेरङ्गस्य स्थाने हौ परतो ज-आदेशो भवति । उदा०-वीर ! शत्रून् जहि। आर्यभाषा: अर्थ-(हन्ते:) हन् (अगस्य) अंग के स्थान में (हौ) हि प्रत्यय परे होने पर (ज:) ज-आदेश होता है। उदा०-वीर ! शत्रून् जहि । हे वीर ! शत्रुओं का वध करो। सिद्धि-जहि । हन्+लोट् । हन्+सिप्। हन्+शप्+सि। हन्+o+सि। हन्+हि । ज+हि। जहि। यहां 'हन हिंसागत्योः ' (अदा०प०) धातु से लोट् च' (३।३।१६२) से विधिआदि अर्थों में लोट् प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लादेश सिप्', 'कर्तरि शप
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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