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षष्टाध्यायस्य तृतीयः पादः
५३३ सिद्धि-(१) विश्वावसुः । यहां विश्व और वसु शब्दों क 'अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से 'विश्व' शब्द को 'वसु' उत्तरपद होने पर दीर्घ होता है।
(२) विश्वाराट् । यहां विश्व और राट् शब्दों का उपपदमतिङ्' (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। दीर्घ-कार्य पूर्ववत् है। ‘राट्' शब्द में राज दीप्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से 'सत्सूद्विष०' (३।२।६१) से 'क्विप्' प्रत्यय है। दीर्घः
(१५) नरे संज्ञायाम्।१२६। प०वि०-नरे ७।१ संज्ञायाम् ७१।
अनु०-उत्तरपदे, संहितायाम्, पूर्वस्य, दीर्घ:, अण:, विश्वस्य इति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायां संज्ञायां विश्वस्य पूर्वस्याणो नरे उत्तरपदे दीर्घः ।
अर्थ:-संहितायां संज्ञायां च विषये विश्व-शब्दस्य पूर्वस्याणो नर-शब्दे उत्तरपदे परतो दीर्घो भवति।
उदा०-विश्वानरो नाम कश्चित्, यस्य वैश्वानरिः पुत्रः ।
आर्यभाषा8 अर्थ-(संहितायाम्) संहिता और (संज्ञायाम्) संज्ञाविषय में (विश्वस्य) विश्व शब्द के (पूर्वस्य) पूर्ववर्ती (अण:) अण् को (नरे) नर-शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद परे होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता है।
उदा०-विश्वानरो नाम कश्चित्, यस्य वैश्वानरिः पुत्रः । विश्वानर नामक कोई पुरुष है उसका पुत्र वैश्वानरि कहाता है। विश्वानर-सविता, इन्द्र, अग्नि के पिता, सबका नेता।
सिद्धि-विश्वानरः । यहां विश्व और नर शब्दों का षष्ठी' (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से संज्ञाविषय में विश्व शब्द के पूर्ववर्ती अण् अकार को उत्तरपद परे होने पर दीर्घ होता है। तत्पश्चात् विश्वानर' शब्द से 'अत इत्र (४।१।७५) से अपत्य-अर्थ में 'इञ्' प्रत्यय है-वैश्वानरिः । दीर्घः
(१६) मित्रे चर्षों १३०। प०वि०-मित्रे ७१ च अव्ययपदम्, ऋषौ ७।१ ।
अनु०-उत्तरपदे, संहितायाम्, पूर्वस्य, अणः, दीर्घः, विश्वस्य इति चानुवर्तते।