________________
५२७
षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-शरा यस्यां सन्तीति शरावती, वंशावती, इत्यादिकम्।।
शर। वंश। धूम। अहि। कपि। मणि। मुनि। शुचि। इति शरादयः ।।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) संहिता और (संज्ञायाम्) संज्ञाविषय में (शरादीनाम्) शर आदि शब्दों के (च) भी (पूर्वस्य) पूर्ववर्ती (अण:) अण् को (मतौ) मतुप प्रत्यय परे होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता है।
उदा०-शरावती, वंशावती इत्यादि।
सिद्धि-शरावती। यहां शर शब्द से नद्यां मतम् (४।२।८५) से मतुप प्रत्यय है। 'संज्ञायाम् (८।२।११) से मतुप के मकार को वकार आदेश होता है। ऐसे हीवंशावती।
विशेष: (१) शरावती-कुरुक्षेत्र की घग्घर नदी के साथ इसकी पहचान की गई है। यह भारत के प्राच्य और उदीच्य देशों की बीच की सीमा थी।
(२) यहां 'मतुप्' प्रत्यय है, अत: उत्तरपदे' की अनुवृत्ति नहीं की जाती है। दीर्घ:
(८) इको वहेऽपीलोः।१२१। प०वि०-इक: ६१ वहे ७१ अपीलो: ६।१। स०-न पीलुरिति अपीलुः, तस्य-अपीलो: (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-उत्तरपदे, संहितायाम्, दीर्घ इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् अपीलोरिको वहे उत्तरपदे दीर्घः ।
अर्थ:-पीलुवर्जितस्य इगन्तस्य पूर्वपदस्य वह-शब्दे उत्तरपदे परतो दीर्घो भवति।
उदा०-ऋषेर्वहमिति ऋषीवहम्। मुनीवहम् । कपीवहम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) संहिता विषय में (अपीलो:) पीलु शब्द से भिन्न (इक:) इगन्त पूर्वपद को (वहे) वह-शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता है।
उदा०-ऋषीवहम् । ऋषि की सवारी (घोड़ा आदि)। मुनीवहम् । मुनि की सवारी। कपीवहम् । वानरों की गाड़ी।
सिद्धि-ऋषीवहम् । यहां ऋषि और वह शब्दों का 'षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। 'वह' शब्द में वह प्रापणे' (भ्व०प०) धातु से नन्दिग्रहि०' (३।१।१३४) से पचादि-अच् प्रत्यय है। इस सूत्र से इगन्त ऋषि' पूर्वपद को वह' उत्तरपद परे होने पर दीर्घ होता है। ऐसे ही-मुनीवहम्, कपीवहम् ।