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षष्टाध्यायस्य तृतीयः पादः
५१६ उदा०-साढ्यै समन्तात् (मै०सं० १।६।३)। सब ओर से सहन करके। साढ्वा शत्रून् (मै०सं० ३।८।५)। शत्रुओं का मर्षण करके। साढा । सहन करनेवाला।
सिद्धि-(१) साढ्यै। सह+क्त्वा। सह त्वा। सद+ध्यै। सद्+ढ्यै। स०+ढ्यै । सा+ढ्यै। साढ्यै+सु । साढयै।
यहां पह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से समानकर्तृकयो: पूर्वकाले (३।४।२१) से 'क्त्वा' प्रत्यय है। क्त्वा' प्रत्यय के स्थान में ध्य-आदेश निपातित है। हो ढः' (८।२।३१) से हकार को ढकार, 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से 'ध्यै' के धकार को ढकार, 'ढो ढे लोप:' (८।३।१३) से सद् के ढकार का लोप और द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण:' (६।३।१११) से सह के अकार अण् को दीर्घ होता है। वेद में सहिवहोरोदवर्णस्य' (६।३।११२) से अवर्ण को ओकार आदेश नहीं होता है।
(२) साढ्वा । यहां षह मर्षणे' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् क्त्वा' प्रत्यय है। क्त्वा' के स्थान में ध्य-आदेश नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है।।
(३) साढा । यहां पह मर्षणे' (भ्वा०आ०) धातु से 'वुल्तृचौं' (३।१।११३) से तृच्’ प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
।।इति आदेशप्रकरणम् ।।
संहिताधिकारीयदीर्घप्रकरणम संहिता-अधिकार:
(१) संहितायाम्।११४। प०वि०-संहितायाम् ७१।
अर्थ:-'संहितायाम्' इत्यधिकारोऽयम् आ पादपरिसमाप्ते: । यदितोऽग्रे वक्ष्यति 'संहितायाम्' इति तद् वेदतिव्यम् । यथा वक्ष्यति-व्यचोऽतस्तिङ:' (६।३।१३५) इति। विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनाम् (ऋ० १०।४७।१)।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) 'संहितायाम्' यह अधिकार सूत्र है, इसका इस पाद की समाप्ति तक अधिकार है। पाणिनि मुनि जो इससे आगे कहेंगे वह संहिता विषय में जानना चाहिये। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे-व्यचोऽतस्तिङः' (६।३ ।१३५) अर्थात् ऋग्वेद में दो अचोंवाले तिङन्त शब्द के अकार को दीर्घ होता है, जैसे- विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनाम् (ऋ० १०।४७।१)।
सिद्धि-विमा' इस पद की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी।