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________________ ४५६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (११) नाकम् । यहां नञ् और अक शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। कम्-सुखम्। अकम्-दुःखम्, तद् यत्र नास्ति स नाक: स्वर्गः । दुःखेन यन्न सम्भिन्नं न प्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च सुखं स्वर्गपदास्पदम् ।। पदमञ्जरी।। प्रकृतिभाव आदुक्-आगमश्च (१०) एकादिश्चैकस्य चादुक् ।७६ । प०वि०-एकादि: ११ च अव्ययपदम्, एकस्य ६।१ च अव्ययपदम्, आदुक् १।१। स०-एक आदिर्यस्य स:-एकादि: (बहुव्रीहि:)। अनु०-उत्तरपदे, नञः, प्रकृत्या इति चानुवर्तते। अन्वय:-एकादिश्च नञ् उत्तरपदे प्रकृत्या, एकस्य चाऽऽदुक् । अर्थ:-एकादिश्च नञ्-शब्दे उत्तरपदे परत: प्रकृत्या भवति, एकशब्दस्य चाऽऽदुग् आगमो भवति। उदा०-एकेन न विंशतिरिति एकान्नविंशतिः, एकान्नत्रिंशत् । आर्यभाषा: अर्थ-(एकादि:) एक शब्द आदि में है जिसके वह (नञ्) नञ्-शब्द (उत्तरपदे) उत्तरपद परे होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है (च) और (एकस्य) एक शब्द को (आदुक्) आदुक् आगम होता है। उदा०-एकान्नविंशतिः । जो कि एक से बीस नहीं है अर्थात् उन्नीस । एकान्नत्रिंशत् । जो कि एक से तीस नहीं है अर्थात् उणतीस । सिद्धि-एकान्नविंशति: । एक+न+विंशति। एक+आदुक्+न+विंशति । एक+आत्+न विंशति। एक+आन्+न+विंशति। एकान्नविंशति+सु। एकान्नविंशति। यहां एक और नविंशति शब्दों का तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन' (२।१।३०) इस सूत्र में तृतीया' इस योगविभाग से तृतीयातत्पुरुष समास है। एक शब्द से परे नञ्-शब्द विंशति शब्द उत्तरपद होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है। 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से 'आत्' के तकार को दकार, यरोऽनुनासिकेनुनासिको वा' से इसे अनुनासिक नकार आदेश है। आदुक् आगम को पूर्व का अन्तवत् मानकर विकल्प-पक्ष में 'एकानविंशति:' रूप भी होता है। ऐसे ही-एकान्नत्रिंशत्, एकाद्नत्रिंशत्।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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