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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-(ई) आत्मानं स्त्री मन्यते इति स्त्रीम्मन्यः, स्त्रियम्मन्यः । श्रियम्मन्यः । (ऊ) आत्मनं ध्रुवं मन्यते इति ध्रुवम्मन्य: । (ऋ) आत्मानं नरं मन्यते इति नरम्मन्यः। (ओ) आत्मानं गां मन्यते इति गाम्मन्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(एकाच:) एक अच्वाले (इच:) इजन्त शब्द को (खिति) खित्-प्रत्ययान्त शब्द उत्तरपद होने पर (अम्) अम् आगम होता है (च) और (अम्) वह अम् (प्रत्ययवत्) द्वितीया एकवचन 'अम्' प्रत्यय के समान होता है।
उदा०-(ई) स्त्रियम्मन्यः । स्वयं को स्त्री के तुल्य माननेवाला। श्रियम्मन्यः । स्वयं को श्री लक्ष्मी माननेवाला। (ऊ) भ्रुवम्मन्यः । स्वयं को भू-भौं के समान भ्रमणशील माननेवाला। (ऋ) नरम्मन्यः । स्वयं को नर माननेवाला। (ओ) गाम्मन्यः । स्वयं को गौ के समान निर्बल माननेवाला।
सिद्धि-(१) स्त्रीम्मन्यः । यहां स्त्री और मन्य शब्दों का उपपदमतिड्' (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। ‘अम्' आगम के प्रत्यय के समान होने से 'अमि पूर्वः' (६।१।१०३) से पूर्वसवर्ण एकादेश होता है। वाऽम्शसोः' (६।४।८०) से विकल्प-पक्ष में इयङ् आदेश भी होता है-स्त्रियम्मन्यः ।
(२) श्रियम्मन्यः । यहां श्री और मन्य शब्दों का पूर्ववत् उपपदतत्पुरुष समास है। 'अम्' आगम को अजादि प्रत्यय मानकर 'अचि अनुधातुभ्रुवां वोरियडुवङौं' (६।४।७७) से 'इयङ्' आदेश है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) नरम्मन्यः। यहां न और मन्य शब्दों का पूर्ववत् उपपदतत्पुरुष समास है। 'अम्' आगम को सर्वनामस्थान के समान मानकर 'ऋतो डिसर्वनामस्थानयोः' (७।३।११०) से नृ' को गुण होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) गाम्मन्यः । यहां गो और मन्य शब्दों का पूर्ववत् उपपदतत्पुरुष समास है। 'मन्य' शब्द में 'मनु अवबोधने' (दि०आ०) धातु से 'आत्ममाने खश् च' (३।२।८३) से 'खश्' प्रत्यय है। 'दिवादिभ्य: श्यन्' (३।१।६९) से 'श्यन्' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से एक अच्वाले तथा इजन्त 'गो' शब्द को खित्-प्रत्ययान्त 'मन्य' शब्द उत्तरपद होने पर 'अम्' आगम होता है। आगम के 'अम्' प्रत्यय के समान होने से 'औतोऽम्शसो:' (६।१।९०) से पूर्व-पर के स्थान में 'आकार' एकादेश होता है। निपातनम्
__ (३) वाचंयमपुरन्दरौ च ।६६ । प०वि०-वाचंयम-पुरन्दरौ १।२ च अव्ययपदम्। ___ स०:-वाचंयमश्च पुरन्दरश्च तौ-वाचंयमपुरन्दरौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।