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रूपम्
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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः
४५३ अन्वय:-शेषस्य नद्या घरूपकल्पचेलडब्रुवगोत्रमतहतेषु उत्तरपदेषु अन्यतरस्यां ह्रस्वः।
अर्थ:-शेषस्य नदीसंज्ञकस्य शब्दस्य घरूपकल्पचेलड्ब्रुवगोत्रमतहतेषु उत्तरपदेषु विकल्पेन ह्रस्वो भवति। पूर्वसूत्रोक्तादन्य: शेष:। कश्च स शेष: ? अङी च या नदी, ड्यन्तं च यदेकाच् स शेष:।।
उदा०-(ध:) ब्रह्मबन्धूतरा, ब्रह्मबन्धुतरा । ब्रह्मबन्धूतमा, ब्रह्मबन्धुतमा। स्त्रीतरा, स्त्रितरा। स्त्रीतमा, स्त्रितमा। रूपबादीनामुदाहरणानिउत्तरपदम्
भाषार्थ: (रूपप्- (क) ब्रह्मबन्धूरूपा, ब्रह्मबन्धुरूपा प्रशंसनीया ब्रह्मबन्धू। प्रत्यय:) (ख) स्त्रीरूपा, स्त्रिरूपा प्रशंसनीया स्त्री। (कल्पप्- (क) ब्रह्मबन्धूकल्पा, ब्रह्मबन्धुकल्पा ब्रह्मबन्धू से कम नहीं। प्रत्यय:) (ख) स्त्रीकल्पा, स्त्रिकल्पा स्त्री से कम नहीं। चेलट् (क) ब्रह्मबन्धूचेली, ब्रह्मबन्धुचेली गर्हित ब्रह्मबन्धू।
(ख) स्त्रीचेली, स्त्रिचेली गर्हित स्त्री। ब्रुवः (क) ब्रह्मबन्धूब्रुवा, ब्रह्मबन्धुब्रुवा ब्रह्मबन्धू कहानेवाली।
(ख) स्त्रीब्रुवा, स्त्रिब्रुवा स्त्री कहानेवाली। गोत्र (क) ब्रह्मबन्धूगोत्रा, ब्रह्मबन्धुगोत्रा जातिमात्र से ब्रह्मबन्धू ।
(ख) स्त्रीगोत्रा, स्त्रिगोत्रा जातिमात्र से स्त्री। मत: (क) ब्रह्मबन्धूमता, ब्रह्मबन्धुमता मानी हुई ब्रह्मबन्धू।
(ख) स्त्रीमता, स्त्रिमता मानी हुई स्त्री। हतः (क) ब्रह्मबन्धूहता, ब्रह्मबन्धुहता हिंसित ब्रह्मबन्धू।
(ख) स्त्रीहता, स्त्रिहता निन्दित स्त्री। ब्रह्मबन्धू-पतित ब्राह्मणी। वीरबन्धू पतित क्षत्रिया।
आर्यभाषा: अर्थ-(शेषस्य) पूर्व सूत्रोक्त से अन्य (नद्याः) नदी-संज्ञक शब्द को (घ०हतेषु) घ, रूप, कल्प प्रत्यय तथा चेलट्, ब्रुव, गोत्र, मत और हत (उत्तरपदे) उत्तरपद होने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (ह्रस्व:) ह्रस्व होता है।