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________________ ४२६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम् 'तरप्तमपौ घः' (१।१।२२ ) से तरप्-प्रत्यय की घ-संज्ञा है । विकल्प पक्ष में सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' ( २/४ /७१ ) से सप्तमी विभक्ति (ङि) का लुक् हो जाता हैपूर्वाह्णतरे । (२) पूर्वाह्णेतमे। यहां सप्तम्यन्त पूर्वाह्ण शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ (५1३1५५) से घ-संज्ञक 'तमप्' प्रत्यय है । 'तरप्तमपौ घः' ( १ । १ । २२) से 'तमप्' प्रत्यय की घ-संज्ञा है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (३) पूर्वाह्णेकाले । यहां पूर्वाह्ण और काल शब्दों का 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम् ' (२1१1५७) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। सप्तमी विभक्ति के अलुक् प्रकरण में सप्तम्यन्त रूप दर्शाया गया है। 'तत्पुरुषे' पद की अनुवृत्ति का सम्भवबल से इसी के साथ सम्बन्ध है क्योंकि 'घ' और 'तन' तो प्रत्यय है अत: वहां तत्पुरुष सम्भव नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (४) पूर्वाह्णेतने। यहां पूर्वाह्ण शब्द से 'विभाषा पूर्वाह्णापराह्णाभ्याम् (४/३/२४) से 'ट्यु' और 'ट्युल्' प्रत्यय और उसे 'तुट्' आगम है। युवोरनाकौँ (७ 1१1१) से 'यु' के स्थान मे अन- आदेश होता है। इस प्रकार तन-प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से कालवाची पूर्वाह्ण शब्द से परे सप्तमी विभक्ति का लुक् नहीं होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । सप्तमी-अलुग्विकल्पः (१८) शयवासवासिष्वकालात् । १८ । प०वि०-शय-वास - वासिषु ७ । ३ अकालात् ५ । १ । स०-शयश्च वासश्च वासी च ते - शयवासवासिन:, तेषु - शयवासवासिषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । न काल इति अकाल:, तस्मात्-अकालात् ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु०-अलुक्, उत्तरपदे, सप्तम्याः, तत्पुरुषे, विभाषा इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत्पुरुषेऽकालात् शयवासवासिषु उत्तरपदेषु विभाषाऽलुक् । अर्थः- तत्पुरुषे समासेऽकालवाचिनः शब्दात् परस्याः सप्तम्याः शयवासवासिषु उत्तरपदेषु विकल्पेनालुग् भवति । उदा०- (शय:) खे शेते इति खेशयः, खशय: । ( वास: ) ग्राम वास इति ग्रामेवास:, ग्रामवास: । (वासी ) ग्रामे वस्तुं शीलं यस्य स:-ग्रामेवासी, ग्रामवासी । अन्तेवासी ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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