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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् तपस्वी। कूलाजिनः । कूल नदी तट आदि है आच्छादन जिसका वह तपस्वी। कृष्णाजिनः। कृष्ण हरिण का चर्म है आच्छादन जिसका वह ब्रह्मचारी।
सिद्धि-(१) देवमित्रः । यहां देव और मित्र शब्दों का अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से संज्ञाविषय मे तथा बहुव्रीहि समास में देव' उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-ब्रह्ममित्रः ।
(२) वृकाजिनः । यहां वृक और अजिन शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। यहां वृक शब्द वृक के विकार (चर्म) अर्थ में है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-कूलाजिनः, कृष्णाजिनः । अन्तोदात्तम्
__ (२४) व्यवायिनोऽन्तरम् ।१६६ । प०वि०-व्यवायिन: ५ ।१ अन्तरम् १।१ । अनु०-उदात्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, बहुव्रीहाविति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ व्यवायिनोऽन्तरम् उत्तरपदम् अन्त उदात्त: ।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे व्यवायिवाचिन: शब्दात् परम् अन्तरमित्युत्तरपदम् अन्तोदात्तं भवति । व्यवायी-व्यवधायक इत्यर्थः ।
उदा०-वस्त्रमन्तरं यस्य सः-वस्त्रान्तरः । पटान्तरः । कम्बलान्तरः ।
आर्यभाषा अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (व्यवायिनः) व्यवायी व्यवधायकवाची शब्द से परे (अन्तरम्) अन्तर-शब्द (उत्तरपदम्) उत्तरपद में (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है।
उदा०-वस्त्रान्तरः । वस्त्र है अन्तर (व्यवधान) जिसका वह पुरुष । पटान्तरः । कपड़ा है अन्तर जिसका वह पुरुष। कम्बलान्तरः । कम्बल है अन्तर जिसका वह पुरुष । अन्तर-पर्दा।
सिद्धि-वस्त्रान्तरः । यहां वस्त्र और अन्तर शब्दों का अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से बहुव्रीहि समास में व्यवायी व्यवधायकवाची वस्त्र-शब्द से परे अन्तर उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-पटान्तरः, कम्बलान्तरः । अन्तोदात्तम्
(२५) मुखं स्वाङ्गम्।१६७ । प०वि०-मुखम् १।१ स्वाङ्गम् १।१। अनु०-उदत्त:, उत्तरपदम्, अन्त:, बहुव्रीहाविति चानुवर्तते।