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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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का बिस्तर । ब्राह्मणशयनम् । ब्राह्मण का बिस्तर । (आसन) राजासनम् । राजा का आसन। ब्राह्मणासनम्। ब्राह्मण का आसन । (स्थान) गोस्थानम् । गौओं का स्थान । अश्वस्थानम् । घोड़ों का स्थान। (याजकादि) ब्राह्मणयाजकः । ब्राह्मण को यज्ञ करानेवाला ऋत्विक् । क्षत्रिययाजकः । क्षत्रिय को यज्ञ करानेवाला ऋत्विक् । ब्राह्मणपूजकः । ब्राह्मणों का पूजक । क्षत्रियपूजकः । क्षत्रियों का पूजक । (क्रीत) गोक्रीतः । गौ से खरीदा हुआ। अश्वक्रीतः । घोड़े से खरीदा हुआ गौ अथवा घोड़े के बदले में लिया हुआ ।
'याजकादिभिश्च' (२ / २।९) यहां जो याचक आदि शब्द षष्ठीसमास के लिये पढ़े हैं, वे ही यहां याजकादि नाम से ग्रहण किये जाते हैं। उनका पाठ ऊपर संस्कृतभाग में लिखा है।
सिद्धि - (१) रथवर्त्म । यहां रथ और वर्त्मन् शब्दों का 'षष्ठी (२/२/८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है । 'वर्त्मन्' शब्द में 'वृतु वर्तनें' (भ्वा०आ०) धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते' (२ 1३/७५) से अधिकरण कारक में मनिन् (मन्) प्रत्यय है। इस सूत्र से कारक से परे मन- अन्त वर्त्मन् उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही शकटवर्त्म । यहां 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (६ । २ ।१३८) से कृत्-स्वर प्राप्त था । यह उसका अपवाद है।
(२) पाणिनिकृति: । यहां पाणिनि और कृति शब्दों का पूर्ववत् षष्ठीतत्पुरुष समास है । कृति शब्द में 'डुकृञ् करणें (तना० उ० ) धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' ( ३/३/९४) से 'क्तिन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - आपिशलिकृतिः, दयानन्दकृतिः ।
(३) ऋगयनव्याख्यानम् । यहां ऋगयन और व्याख्यान शब्दों का पूर्ववत् षष्ठीतत्पुरुष समास है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही - छन्दोव्याख्यानम्, वेदव्याख्यानम्, आदि ।
(४) ब्राह्मणयाजक: । यहां ब्राह्मण और याजक शब्दों का याजकादिभिश्च' (२ 1२ 1९ ) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही- ब्राह्मणपूजकः, आदि ।
(५) गोक्रीतः । यहां गो और क्रीत शब्दों का कर्तृकरणे कृता बहुलम् (२1१/३२) से तृतीया तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से गो कारक से परे 'क्रीत' उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है । 'तृतीया कर्मणि' (६ । २ । ४८) से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर प्राप्त था, यह सूत्र
उसका अपवाद है।
अन्तोदात्तम्
(१०) सप्तम्याः पुण्यम् । १५२ ।
प०वि० - सप्तम्या: ५ ।१ पुण्यम् १ । १ ।
अनु०- उदात्तः, उत्तरपदम् तत्पुरुषे, अन्त इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत्पुरुषे सप्तम्याः पुण्यम् उत्तरपदम् अन्त उदात्तः ।