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________________ षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः ३६३ अन्तोदात्तम् (६) कारकाद् दत्तश्रुतयोरेवाशिषि । १४८ | प०वि०-कारकात् ५।१ दत्त - श्रुतयोः ६ । २ एव अव्ययपदम्, आशिषि ७ । १ । स० - दत्तश्च श्रुतश्च तौ दत्तश्रुतौ तयो: - दत्तश्रुतयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-उदात्तः, उत्तरपदम्, तत्पुरुषे, अन्तः, क्तः, संज्ञायामिति चानुवर्तते । अन्वयः-संज्ञायां तत्पुरुषे कारकाद् दत्तश्रुतयोरेव क्त उत्तरपदम् अन्त उदात्त:, आशिषि 1 अर्थः-संज्ञायां विषये तत्पुरुषे समासे कारकात् परयोर्दत्तश्रुतयोरेव क्तान्तयोरुत्तरपदयोरन्तोदात्तं भवति, आशिषि गम्यमानायाम् । उदा०- ( दत्तः ) देवा एनं देयासुरिति देवदत्तः । (श्रुतः) विष्णुरेनं शृणुयादिति विष्णुश्रुतः। आर्यभाषाः अर्थ-(संज्ञायाम्) संज्ञाविषय में (तत्पुरुषे) तत्पुरुष समास में (कारकात्) कारक से परे (दत्तश्रुतयो: ) दत्त और श्रुत (क्तः) क्त प्रत्ययान्त शब्दों को (एव) ही (अन्त उदात्तः) अन्तोदात्त होता है (आशिष) यदि वहां आशीर्वाद अर्थ अभिधेय हो । उदा०- ( दत्त) देवदत्तः । देवों ने इसे आशीर्वादपूर्वक दिया है यह देवदत्त । (श्रुत) विष्णुश्रुतः । विष्णु ने इसे आशीर्वादपूर्वक सुना है यह - विष्णुश्रुत । सिद्धि-देवदत्तः । यहां देवदत्त शब्दों का 'कर्तृकरणे कृता बहुलम्' (२1१1३१) से तृतीयतत्पुरुष समास है । दत्त शब्द में 'डुदाञ् दाने' (जु०3०) धातु से 'क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्' (३ । ३ । १७४ ) से क्त प्रत्यय है । 'दो दद् घो:' (७।४।४६ ) से 'दा' के स्थान में दद् - आदेश होता है। इस सूत्र से संज्ञाविषय में तथा तत्पुरुष समास में और आशीर्वाद अभिधेय में देव' कारक से परे क्तान्त 'दत्त' उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही - विष्णुश्रुतः । यहां 'संज्ञायामनाचितादीनाम्' ( ६ । २ । १४५ ) से क्तान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त स्वर प्राप्त था । उसका यहां नियम किया गया है कि यदि कारक से परे कोई क्तान्त उत्तरपद हो तो केवल 'दत्त' और 'श्रुत' शब्दों को ही अन्तोदात्त स्वर हो; अन्यों को नहीं । अन्यत्र 'तृतीया कर्मणि' (६।२।४८) से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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