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________________ ३२५ षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः (२) पूर्वपाञ्चालकः। यहां पूर्व और पञ्चाल शब्दों का पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराश्च' (२।१।५८) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। तत्पश्चात् 'पूर्वपञ्चाल' शब्द से पूर्ववत् 'वुञ्' प्रत्यय और दिशोऽमद्राणाम् (७।३।१३) से उत्तरपदवृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-उत्तरपाञ्चाल: । अन्तोदात्तम् (१५) बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम् ।१०६ । प०वि०-बहुव्रीहौ ७।१ विश्वम् १।१ संज्ञायाम् ७।१। अनु०-पूर्वपदम्, उदात्त:, अन्त इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ संज्ञायां विश्वं पूर्वपदम् अन्त उदात्त: । अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे संज्ञायां च विषये विश्वम् इति पूर्वपदम् अन्तोदात्तं भवति। उदा०-विश्वदेवः । विश्वयंशा: । विश्वमहान्। आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास तथा (संज्ञायाम्) संज्ञा विषय में (विश्वम्) विश्व (पूर्वपदम्) पूर्वपद (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है। ___ उदा०-विश्वदेव: । यह संज्ञा-विशेष है। विश्वयशा: । यह संज्ञा-विशेष है। विश्वमहान् । यह संज्ञा-विशेष है। सिद्धि-विश्वदेवः । यहां विश्व और देव शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से बहुव्रीहि समास तथा संज्ञाविषय में विश्व पूर्वपद को अन्तोदात्त स्वर होता है। बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्' (६।२।१) से विश्व' पूर्वपद को प्रकृतिस्वर प्राप्त था, यह उसका अपवाद है। विश्व' शब्द में अशिघुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्' (उणा० ११५१) से 'क्वन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के नित् होने से 'विश्व' शब्द नित्यादिर्नित्यम्' (६।१।१९१) से आधुदात्त है। विश्वदेव आदि शब्द संज्ञावाची होने से इनका विग्रह-वाक्य नहीं होता है क्योंकि वाक्य से संज्ञा की प्रतीति नहीं होती है। अन्तोदात्तम् (१६) उदराश्वेषुषु।१०७। प०वि०-उदर-अश्व-इषुषु ७।३ । स०-उदरं च अश्वश्च इषुश्च ते-उदराश्वेषवः, तेषु-उदराश्वेषुषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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