SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः २६६ सिद्धि-भिक्षाकसः। यहां भक्तविशेषवाची भिक्षा और तदर्थवाची कंस शब्दों का चतुर्थीतदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः' (१।३५) से चतुर्थीतत्पुरुष समास है। जो यहां तदर्थ' से प्रकृति-विकारभाव का ग्रहण मानते हैं उनके मत में यहां षष्ठी (२।११८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से तदर्थवाची कंस शब्द उत्तरपद होने पर भक्तविशेषवाची भिक्षा पूर्वपद को आधुदात्त स्वर होता है। आधुदात्तम् (६) गोविडालसिंहसैन्धवेषूपमाने ७२। प०वि०-गो-विडाल-सिंह-सैन्धवेषु ७।३ उपमाने ७।१ । स०-गौश्च विडालश्च सिंहश्च सैन्धवश्च ते गोविडालसिंहसैन्धवा:, तेषु-गोविडालसिंहसैन्धवेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-पूर्वपदम्, आदि:, उदात्त इति चानुवर्तते। अन्वयः-उपमानेषु गोविडालसिंहसैन्धवेषु पूर्वपदम् आदिरुदात्त: । अर्थ:-उपमानवाचिषु गोविडालसिंहसैन्धवेषु शब्देषु उत्तरपदेषु पूर्वपदमायुदात्तं भवति। उदा०- (गौः) धान्यं गौरिव इति धान्यगवः। (हिरण्यम्) हिरण्यं गौरिव इति हिरण्यगवः । (विडाल:) भिक्षा विडाल इव इति भिक्षाविडालः । (सिंह:) तृणं सिंह इव इति तृणसिंह: । काष्ठं सिंह इव काष्ठसिंह। (सैन्धव:) सक्तु: सैन्धव इव इति सक्तुसैन्धवः । पानं सैन्धव इव इति पानसैन्धवः । - आर्यभाषा: अर्थ-(उपमाने) उपमानवाची (गोविडालसिंहसैन्धवेषु) गो, विडाल, सिंह, सैन्धव शब्दों के उत्तरपद होने पर (पूर्वपदम्) पूर्वपद (आदिरुदात्त:) आधुदात्त होता है। उदा०-(गो) धान्यगवः । गौ के आकार में सन्निवेशित (लगाया हुआ) धान्य। (हिरण्य) हिरण्यगवः । गौ के वर्ण का पीला सुवर्ण । (विडाल) भिक्षाविडाल: । विडाल के समान दुर्लभ भिक्षा। (सिंह) तृणसिंह: । सिंह के आकार में सन्निवेशित तृण (घास)। काष्ठसिंहः । सिंह के आकार में सन्निवेशित काष्ठ (लकड़ी)। (सैन्धव) सक्तुसैन्धवः । सैन्धव (नमक) के समान सफेद सक्तु (सत्तू)। पानसैन्धवः । नमक के समान सफेद पान पियपदार्थ)। सिद्धि-धान्यगवः । यहां उपमितवाची धान्य और उपमानवाची गौ शब्दों का उपमितं व्याघ्रादिभि: सामान्याप्रयोगे (२।१।५५) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। गोरतद्धितलुकि' (५।४।९२) से समासान्त टच्' प्रत्यय होता है। इस सूत्र से उपमानवाची 'गौ' शब्द उत्तरपद होने पर पूर्वपद 'धान्य' को आधुदात्तस्वर होता है। ऐसे ही-हिरण्यगव: आदि।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy