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________________ २७६ षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः (५) दात्रेलूना । यहां दात्र और पूर्वोक्त लूना शब्दों का पूर्ववत् तृतीया तत्पुरुष समास है। दात्र शब्द 'दाम्नीशस०' (३।२।१८२) से ष्ट्रन्-प्रत्ययान्त है। प्रत्यय के नित् होने से यह नित्यादिनित्यम्' (६।१।१९१) से आधुदात्त है। यह इस सूत्र से कर्मवाची, क्तान्त लूना शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। यहां हत' आदि शब्दों में तयोरेव कृत्यक्तखलाः ' (३।४।७०) से कर्मवाच्य में 'क्त' प्रत्यय है। प्रकृतिस्वरः (४६) गतिरनन्तरः।४६ प०वि०-गति: १।१ अनन्तर: १।१। स०-न विद्यते अन्तरं यस्य स:-अनन्तर: (बहुव्रीहिः) । 'अनन्तर' इति पुंलिङ्गनिर्देशाद् गतिशब्द: 'क्तिचक्तौ च संज्ञायाम् (३।३।१७४) इति क्तिच्प्रत्ययान्तो निपातनाच्चानुनासिकलोपो वेदितव्यः । अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, क्ते, कर्मणि इति चानुवर्तते। अन्वय:-कणि क्तेऽनन्तरो गति: पूर्वपदं प्रकृत्या। अर्थ:-कर्मवाचिनि क्तान्ते शब्दे उत्तरपदेऽनन्तरो गति: पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति । अनन्तर:=अव्यवहित इत्यर्थः। उदा०-प्रकर्षेण कृत इति प्रकृत: । प्रहृतः । आर्यभाषा: अर्थ-(कर्मणि) कर्मवाची (क्ते) क्त-प्रत्ययान्त शब्द उत्तरपद होने पर (अनन्तर:) अव्यवहित (गति:गति-संज्ञक (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। उदा०-प्रकृतः । प्रकर्ष से बनाया हुआ। प्रहृतः । प्रकर्ष से हरण किया हुआ। सिद्धि-प्रकृत:। यहां प्र और कर्मवाची, क्तान्त हृत शब्दों का कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से गतिसमास है। 'प्र' शब्द उपसर्गाश्चाभिवर्जम्' (फिट० ४।१३) से आधुदात्त है और 'गतिश्च' (१।४।५९) इसकी गति' संज्ञा है। अत: यह अव्यवहित गति-संज्ञक शब्द इस सूत्र से कर्मवाची, क्तान्त कृत' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे ही-प्रहृतः। यहां 'अनन्तरः' का कथन इसलिये किया गया है व्यवहित गति प्रकृतिस्वर से न रहे जैसे-अभ्युद्धृतः । समुद्धृतः । समुदाहृतः । यहां व्यवहित अभि आदि गतियों का आधुदात्त स्वर नहीं होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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