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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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से प्रकृतिस्वर करने पर ईको यणचिं' (६।१।७५) से यण्- आदेश होने पर 'उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य' (८/२/४ ) से स्वरित स्वर होता है। विकल्प पक्ष में 'समासस्य' ( ६ 1१/२१७) से अन्तोदात्त स्वर होता है- बहरत्निः ।
(२) बहुमोस्यः। यहां बहु और कालवाची मास शब्दों का तद्धितार्थ में पूर्ववत् द्विगुसमास है। उससे 'द्विगोर्यप्' (५1१1८२ ) से भूत अर्थ में तथा वय: (आयु) अभिधेय में 'यप्' प्रत्यय है। 'बहु' शब्द इस सूत्र से द्विगुसमास में कालवाची मास शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। विकल्प पक्ष में पूर्ववत् अन्तोदात्त स्वर होता है - बहुमास्य: ।
(३) बहुकेपाल: । यहां बहु और कपाल शब्दों का तद्धितार्थ में पूर्ववत् द्विगुसमास है । 'बहु' शब्द पूर्ववत् अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से द्विगुसमास में कपाल शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्व से रहता है । विकल्प पक्ष में पूर्ववत् अन्तोदात्त स्वर होता है- बहुकपाल: । ऐसे ही- बहुभगालः, बहुभगाल: । बहु॑शरावः, बहुशरा॒वः ।
प्रकृतिस्वरविकल्पः
(३१) ष्टिवितस्त्योश्च | ३१ |
प०वि०-दिष्टि-वितस्त्योः ७ । २ च अव्ययपदम् ।
सo - द्विष्टिश्च वितस्तिश्च ते दिष्टिवितस्ती, तयो: - दिष्टिवितस्त्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
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अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, द्विगौ, अन्यतरस्यामिति चानुवर्तते । अन्वयः -द्विगौ दिष्टिवितस्त्योश्च पूर्वपदमन्यतरस्यां प्रकृत्या । अर्थ:-द्विगौ समासे दिष्टिवितस्त्योश्चोत्तरपदयोः पूर्वपदं विकल्पेन प्रकृतिस्वरं भवति ।
उदा०- ( दिष्टि ) पञ्च दिष्टयः प्रमाणमस्येति पञ्च॑दिष्टिः । पञ्चदिष्टि: । ( वितस्ति:) पञ्च वितस्तय: प्रमाणमस्येति पञ्चवितस्तिः । पञ्चवितस्तिः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (द्विगौ) द्विगुसमास में (दिष्टिवितस्त्योः) दिष्टि और वितस्ति शब्द उत्तरपद होने पर (च) भी (पूर्वपदम् ) पूर्वपद (अन्यतरस्याम्) विकल्प से ( प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है।
उदा०- - (दिष्टि) पञ्चदिष्टि: । पञ्चदिष्टि: । पांच दिष्टि प्रमाणवाला । दिष्टि = प्रादेश (अंगूठे के शिर से तर्जनी अंगुलि के शिर तक की दूरी का प्रमाणविशेष ) । प्राचीनकाल का एक मान जो अंगूठे की नोक से लेकर तर्जनी की नोक तक का होता था और नापने के काम