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________________ १० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् द्विवचनम् (८) लिटि धातोरनभ्यासस्य।८। प०वि०-लिटि ७१ धातो: ६।१ अनभ्यासस्य ६।१। स०-न विद्यतेऽभ्यासो यस्मिन् स:-अनभ्यास:, तस्य-अनभ्यासस्य (बहुव्रीहिः)। अनु०-एकाच:, द्वे, प्रथमस्य, अजादे:, द्वितीयस्य, न, न्द्राः , संयोगादय: इति चानुवर्तते। अन्वय:-लिटि अनभ्यासस्य धातो: प्रथमस्यैकाच:, अजादेर्द्वितीयस्यैकाचो द्वे, संयोगादयो न्द्राश्च न द्वे। अर्थ:-लिटि परतोऽनभ्यासस्य धातोरवयवस्य प्रथमस्यैकाच:, अजादेश्च द्वितीयस्यैकाचो द्वे भवतः, संयोगदयो न्द्राश्च न द्विरुच्यन्ते। उदा०-स पपाच । स पपाठ । स प्रोणुनाव । आर्यभाषा: अर्थ- (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (अनभ्यासस्य) अभ्यास से रहित (धातो:) धातु के अवयव भूत (प्रथमस्य) प्रथम (एकाच्) एकाच समुदाय को तथा (अजादे:) अजादि धातु के (द्वितीयस्य) द्वितीय (एकाच:) एकाच समुदाय को (द्वे) द्वित्व होता है किन्तु (संयोगादयः) संयोग के आदिभूत नकार, दकार और रेफ को (द्वे) द्वित्व (न) नहीं होता है। उदा०-स पपाच । उसने पकाया। स पपाठ। उसने पढ़ाया। स प्रोर्णनाव । उसने आच्छादित किया। सिद्धि-(१) पपाच और पपाठ पदों की सिद्धि पूर्ववत् है (६।१।४)। (२) प्रोणुनाव । प्र+ऊर्गुञ्+लिट् । प्र+ऊणु+तिम्। प्र+ऊd+णल् । प्र+उर् नु-नु+अ। प्र+उर् नु-नौ+अ। प्र+उर् णु-नाव। प्रोणुनाव। यहां प्र उपसर्गपूर्वक ऊर्गुञ् आच्छादने (अदा०उ०) धातु से लिट् प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७४) से लकार के स्थान में तिप् आदेश, परस्मैपदानां णलतुसुस्' (३।४।८२) से तिम् के स्थान में णल् आदेश और इस सूत्र से इस अजादि धातु के द्वितीय अच् समुदाय नु' को द्वित्व होता है और न न्द्रा: संयोगादयः' (६।१।३) से प्रतिषेध होने से संयोगादि रेफ को द्वित्व नहीं होता है। अणुच्’ को अधोलिखित कारिकावचन से गुवत् ' मानकर इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छ:' (३।१।३६ ) से आम् प्रत्यय नहीं होता है। का०- वाच्य ऊर्णोर्गुवद्भावो यप्रसिद्धि: प्रयोजनम् । आमश्च प्रतिषेधार्थमेकाचश्चेडुपग्रहात् ।।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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