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________________ २५० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(विस्पष्टादीनि) विस्पष्ट आदि (पूर्वपदम्) पूर्वपद (गुणवचनेषु) गुणवाची शब्दों के उत्तरपद होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहते हैं। __ उदा०-विस्पष्टकटुकम् । साफ कडुवा। विचित्रकटुकम् । विचित्र कडुवा । व्यक्तकटुकम् । प्रकट कडुवा । विस्पष्टलवणम् । साफ नमकीन । विचित्रलवणम् । विचित्र नमकीन । व्यक्तलवणम् । प्रकट नमकीन । विस्पष्टकटुकम्' यहां विस्पष्टं कटुकम्' ऐसा विग्रह करके 'सुप् सुपा' से केवल समास जानें। विस्पष्ट आदि शब्द प्रवृत्ति-निमित्त के विशेषण है। कटुक आदि शब्दों से उस गुणवान् द्रव्यों का कथन किया जाता है इसलिये विस्पष्ट और कटुक शब्द का परस्पर समानाधिकरण नहीं है, अत: यहां कर्मधारय समास नहीं है। सिद्धि-(१) विस्पष्टकटुकम् । यहां विस्पष्ट और गुणवाची कटुक शब्दों का सुप् सुपा से केवलसमास है। विस्पष्ट शब्द 'गतिरनन्तरः' (६।२।४९) से आद्युदात्त है। यह इस सूत्र से गुणवाची कटुक शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे हीविस्पष्टलवणम् । (२) विचित्रकटुकम् । यहां विचित्र और कटुक शब्दों का पूर्ववत् केवलसमास है। विचित्र' शब्द में वि' उपसर्गपूर्वक चित्र चित्रीकरणे' (चु०उ०) धातु से 'घञ्' प्रत्यय है-विशेषेण चित्रम्-विचित्रम् (प्रादितत्पुरुष)। तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः ' (६।२।२) से 'वि' अव्यय प्रकृतिस्वर से रहता है। निपाता आधुदात्ता:' (फिट ४ ।१२) से निपात (अव्यय) आधुदात्त होते हैं। अत: विचित्र' शब्द आधुदात्त है। यह इस सूत्र से गुणवाची कटुक शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे ही-विचित्रलवणम्। (३) व्यक्तकटुकम् । यहां व्यक्त और कटुक शब्दों का पूर्ववत् केवलसमास है। 'व्यक्त' शब्द (वि+अक्त) 'उदात्तस्वरितयोर्यण: स्वरितोऽनुदात्तस्य' (८।२।४) से आदिस्वरित है। यह इस सूत्र से गुणवाची कटुक' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। ऐसे ही-व्यक्तलवणम् । विस्पष्ट आदि गण में जो अन्य शब्द पठित हैं उनमें--‘सम्पन्न' शब्द 'थाथाघक्ताजबित्रकाणाम्' (६।२।१४३) से अन्तोदात्त है। पटु और पण्डित शब्द प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। 'कुशल' शब्द गतिकारकोपपदात् कृत्' (६।२।३८) से अन्तोदात्त है। चपल' शब्द 'चपेरच्चोपधाया:' (उणा० १११११) से कल-प्रत्ययान्त है। यहां वषादिभ्यश्चित (उणा० १।१०६) से चित्' की अनुवृत्ति है। अत: चित:' (६।१।१५८) से अन्तोदात्त निपुण' शब्द में नि-उपसर्गपूर्वक पुण कर्मणि शुभे' (तु०प०) धातु से गुपधज्ञाप्रीकिर: क:' (३।१।१३५) से क' प्रत्यय है। अत: यह 'थाथपत्रक्ताजबित्रकाणाम्' (६।२।१४३) से अन्तोदात्त है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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